SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३. देव- पूजा १३८ ६. शंका समाधान जानी अवश्य जा सकती है, परन्तु केवल उसके द्वारा जिसने कि कभी पहले उसका परिचय प्राप्त किया हो, भले ही आज वह उसका परिचय प्राप्त करके छोड़ बैठा हो । यहाँ इतनी बात अवश्य है कि अधिक समय तक छोड़े रहने के कारण वह परिचय अत्यन्त लुप्त हो सकता है, ऐसा कि प्रयत्न करने पर भी याद न आये। तब उसे अवश्य पुनः बाह्य का आश्रय लेने की आवश्यकता पड़ेगी, जैसे कि पहली बार लगाया हुआ कारखाना यदि दुर्भाग्यवश फेल हो जाय, और कुछ वर्ष पश्चात् पुनः उसे चालू करना पड़े तो अब उसे नमूने की कोई आवश्यक नहीं रहती, स्वतन्त्ररूप से स्मरण के आधार पर माल बना लेता है। परन्तु यदि किसी रोग-विशेष के कारण उसकी स्मरण-शाक्ति जाती रही हो और फिर यह कारखाना चालू करना पड़े तो पुनः उसे अवश्य ही नमूने की आवश्यकता पड़ेगी। तीसरा प्रश्न यह है कि उसके जीवन की शान्ति मुझ में कैसे आ सकती है ? बहुत सुन्दर प्रश्न है । तेरा विचार बिल्कुल ठीक है । वास्तव में किसी अन्य की शान्ति मुझमें कदापि नहीं आ सकती। उसकी शान्ति उसके साथ और मेरी शान्ति मेरे साथ ही रहेगी। उसकी शान्ति उसके पुरुषार्थ द्वारा उसमें उत्पन्न हुई है, और मेरी शान्ति मेरे पुरुषार्थ द्वारा मुझमें ही उत्पन्न होनी है। उसकी शान्ति का उपभोग वह स्वयं कर रहा है और मेरी शान्ति का उपभोग में स्वयं ही करूँगा। ऐसी ही वस्तु की स्वतन्त्रता है । इसलिये वह मुझे शान्ति देने में समर्थ नहीं है । इतना अवश्य उससे लाभ है कि उसका नमूना देखकर मैं उस परम परोक्ष रहस्य का कुछ अनुमान लगा सकता हूँ, यदि बुद्धि-पूर्वक प्रबल-पुरुषार्थ करूँ तो । जैसे कि कारखाना लगाने वाले उस व्यक्ति को नमूना कुछ देता नहीं है, वह स्वयं ही उसको देखकर अनुमान के आधार पर उस सम्बन्धी परिचय प्राप्त कर लेता है, वैसे ही शान्त स्वरूप तथा आदर्शरूप वह व्यक्ति मुझे कुछ देता नहीं है, मैं स्वयं ही उसकी मुखाकृति को, उसके शान्त परिभाषण और जीवन में होने वाली उसकी कुछ शान्त-क्रियाओं को देखकर, अनुमान के आधार पर शान्ति सम्बन्धी कुछ परिचय प्राप्त कर सकता हूँ । 1 यहाँ यह बात कुछ बिचारणीय है कि अनुमान के आधार पर किसी के जीवन को कैसे पढ़ा जा सकता है ? इसके सम्बन्ध में एक दृष्टान्त है। एक जिज्ञासु किसी समय अपने गुरु के पास पहुँचा और बोला, प्रभो ! कुछ हितकारी उपदेश देकर मेरा कल्याण कीजिये। गुरु बोले कि “भाई ! मैं उपदेश तो दे दूंगा, पर उसका लाभ कुछ न होगा। मैं तो केवल दो चार वाक्य ही कह सकता हूँ, परन्तु उसका रहस्य तुम कैसे समझ सकोगे ? ऐसे उपदेश तुम पहले भी अनेक बार सुन चुके हो, परन्तु सुनने मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध होता नहीं । जाओ नगर के विख्यात सेठ शांति स्वरूप के पास चले जाओ, वहाँ उनके पास रहकर धैर्यपूर्वक उपदेश सुनना ।” आज्ञानुसार वह सेठ की दुकान पर पहुँच गया, गुरु की आज्ञा कह सुनाई और सेठ के पास दुकान पर रहने लगा । सेठ बड़ा व्यापारी था, प्रतिदिन लाखों का व्यापार, अनेकों मुनीम-गुमाश्ते, बही-खाते और न मालूम क्या- क्या ? जिज्ञासु सोचने लगा कि न जाने क्या सोचकर गुरुदेव ने भेजा है यहाँ ? क्या उपदेश मिलेगा यहाँ ? सेठ जी बिचारे स्वयं उपदेश के पात्र हैं, स्वयं जाल में फंसे बैठे हैं, क्या जानें कि कल्याण किस चिड़िया का नाम है ? फिर भी रहना तो पड़ेगा ही गुरु की आज्ञा जो है । दो महीने बीत गये, पर सेठ जी की जबान से एक शब्द भी उपदेश का न निकला । फिर वही पहले वाले विचार घूमने लगे हृदय - पट पर । इसी प्रकार विचारों के हिंडोले में झूलता अन्तरंग में निराश सा व्यर्थ समय गवां रहा था बेचारा । एक महीने पश्चात् एक मुनीम जी घबराये हुये आए सेठ जी के पास । मुँह से वाक्य नहीं निकलते थे बेचारे के । कुछ साहस करके बोले कि " चार करोड़ का माल जहाज़ से भेजा था, समाचार आया है कि जहाज़ डूब गया है। " सेठ जी अत्यन्त शान्त रहते हुए ही बोले, "तो क्या हुआ ? प्रभु की कृपा है, जाओ अपना काम करो ।” एक छोटा सा वाक्य था, वाक्य से ध्वनित कुछ सन्तोष था, शान्त मुखाकृति और पूर्ववत् ही अपने काम में संलग्नता थी, मानो कुछ भी हुआ ही नहीं । जिज्ञासु ने वह सब सुना व देखा। दो महीने पश्चात् आज उसे कुछ ऐसा लग रहा था कि कोई उसे बड़ा उपदेश दे रहा है । विचार-निमग्न वह सहमा सा बैठा ही रह गया । और दो महीने बीत गये । एक दिन पुनः एक घटना घटी। मुनीम जी दौड़े आ रहे हैं, हाँपते हुए, मानो दो मील से चले आ रहे हों, मस्तक पर पसीने की बूँदे, आँखों में हर्ष, होंठों पर मुस्कराहट, “सेठ जी ! बड़े हर्ष का दिन है, भाग्य जग गये हैं । अमुक सौदे में दस करोड़ का लाभ, अभी तार आया है, यह लीजिए। सेठ जी आज भी शान्त । बोले, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy