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२३. देव-पूजा
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६.शंका समाधान
देव की परीक्षा करनी है । सो देव पूजा के तीसरे प्रकरण में की जा चुकी है, और यह निर्णय किया जा चुका है कि उस देव का स्वरूप जिसकी कि मैं आदर्श रूप में उपासना करने चला हूँ, वीतराग तथा शान्त-रसपूर्ण ही होना चाहिए अन्य नहीं, क्योंकि अभिप्राय से विपरीत जिस-किसी को आदर्श बनाकर उपासना करने से अभिप्राय की पूर्ति होना असम्भव है। अभिप्राय-शून्य उपासना में भले यह नियम लागू न हो, पर यहाँ जिस सच्ची पूजा या उपासना की बात चलेगी उसमें अभिप्राय-सापेक्ष होने के कारण यह नियम आवश्यक है।
(२) पूजा विषयक दूसरा प्रश्न है 'पूजा क्या ?' जैसा कि कल के प्रवचन में काफी विस्तार करके बताया जा चुका है, शान्ति के अभिप्राय की पूर्ति के अर्थ शान्ति में तल्लीन किसी व्यक्ति विशेष को आंखों के सामने रखकर या उस व्यक्ति के किसी चित्रण को आंखों के सामने रखकर, अथवा उस व्यक्ति या उसके चित्रण को अन्तरंग में मन के सामने रखकर, अथवा शान्ति के यथार्थ जीवनादर्श को मन में स्थापित करके, कुछ देर के लिए अन्य सर्व संकल्प-विकल्पों को छोड़ उस आदर्श की शान्ति के आधार पर, निज शान्ति का अपने अन्दर में किञ्चित वेदन करते हुए, उसके साथ तन्मय हो जाना, अन्तरंग-पूजा है । शान्ति के इस मधुर आस्वादनवश, निमित्तरूप उस आदर्श के प्रति सच्चा बहुमान उत्पन्न हो जाने पर, अपने दोषों को तथा कमजोरियों को दूर करने के लिए और उसमें प्रकट दीखने वाले गुणों की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार से प्रार्थना करना बाह्य-पूजा है । इन दोनों पूजाओं में अन्तरंग पूजा ही यथार्थ पूजा है, इसके बिना बाह्य-पूजा निरर्थक है' यह वाक्य बराबर दृष्टि में रखना चाहिये, क्योंकि इसको भूल जाने पर आपको अपने प्रश्नों का उत्तर समझ में न आएगा।
(३) यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब अन्तरंग-पूजा अर्थात् शान्ति का वेदन ही प्रधान है तो 'बाह्य पूजा की आवश्यकता क्यों ?' प्रश्न बहुत अच्छा है। वास्तव में उसकी कोई आवश्यकता न होती यदि प्रथम-भमिका में ही मैं स्वतन्त्ररूप से शान्ति का वेदन करके उसमें स्थिति पाने के योग्य हो सका होता । शान्ति से बिल्कुल अनभिज्ञ मैने न कभी शान्ति को देखा है, न सुना है, न अनुभव किया है । ऐसी दशा में सोचिए कि शान्ति में स्थिति पाकर अन्तरंग-पूजा करनी सम्भव कैसे हो सकती है ? अत: जब तक शान्ति का परिचय प्राप्त न कर लूं, किसी न किसी शान्त-जीवन का निकट सानिध्य आवश्यक है, क्योंकि शान्ति ऐसी वस्तु नहीं जो शब्दों में बताई जा सके, या स्कूलों में पढ़ाई जा सके, या 'शान्ति' शब्द के रटने मात्र से उसे जाना या कहा जा सके। यह तो किसी आन्तरिक सूक्ष्म-स्वाद का नाम है जो वेदन किया जा सकता है तथा किसी के जीवन पर से अनुमान लगाकर किञ्चित् जाना जा सकता है, जैसा कि आगे दृष्टान्त पर से स्पष्ट हो जायेगा। इतना ही नहीं बल्कि शान्ति का परिचय प्राप्त कर लेने पर भी, मैं निरन्तर उसमें स्थित रह सकूँ इतनी शक्ति प्रथम अवस्था में होनी असम्भव है। अत: उतने समय के लिये जितने समय तक कि मैं स्वतंत्ररूप से उसके रसास्वादन में लय होने के योग्य न हो जाऊं, मुझे किसी बाह्य पदार्थ के आश्रय की आवश्यकता होगी और इसी प्रयोजन के अर्थ है अन्तरंग सापेक्ष बाह्य पूजा। यहाँ इतना अवश्यक जान लेने योग्य है कि यद्यपि अगली भूमिका में जाकर इस बाह्य पूजा की कोई आवश्यकता नहीं रहती, परन्तु इस गृहस्थ-दशा में स्थित मनुष्य के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है । “बिना किसी बाह्य जीवन का आश्रय लिये इस शान्ति का परिचय क्यों प्राप्त नहीं हो सकता ? शान्ति तो अपना
रूप से क्यों जानी नहीं जा सकती? उसके जीवन की शान्ति मझमें कैसे आ सकती है. और अपनी शान्ति दिये बिना वह मझे शान्ति का स्वाद कैसे चखा सकता है ? इत्यादि अनेकों प्रश्न इस स्थल पर मुझे आगे चलने से रोक रहे हैं। अच्छा ले पहले इनका ही स्पष्टीकरण कर देता हूँ।
पहले प्रश्न का उत्तर तो पहले दिया जा चुका है कि जिसने आज तक उसे न देखा हो, न अनुभव किया हो, वह बिना पर के आश्रय के उसे कैसे जान सकता है ? जैसे कि जिस वस्तु का आकार ही मेरे ध्यान में नहीं, उस वस्तु को बनाने का कारखाना मैं कैसे लगा सकता हूँ । उस वस्तु का एक नमूना अपने सामने रख कर भले ही उस जैसी अनेकों वस्तुएँ बनाने में सफल हो जाऊँ । यह ठीक है कि कारखाना चल जाने के पश्चात् उस नमूने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं रहती, परन्तु प्रारम्भ में वह मेरे लिए अत्यन्त आवश्यक है।
दूसरा प्रश्न है कि स्वतन्त्र रूप से क्यों नहीं जानी जा सकती ? इसका निषेध किया किसने ? स्वतन्त्र रूप से
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