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________________ २३. देव- पूजा १३६ ६. शंका समाधान ६. हे ज्ञान- ज्योति ! हे त्रिलोक प्रकाशक ! आन्तरिक अन्धकार का विनाश कर अतुल तेज जागृत किया है आपने । कोटि जिह्वाओं से इस तेज की महिमा का वर्णन करने को आज बृहस्पति भी समर्थ नहीं है, उस तेज के अतुल प्रकाश की महिमा का जिसमें तीन लोक व तीन कालवर्ती सर्व पदार्थ हाथ पर रखे आंवलेवत् प्रतिभासित हो रहे हैं। आपको । इस अन्धे को भी नेत्र प्रदान कीजिये प्रभु । पर- पदार्थों में रस लेने में अन्धा हुआ आज मैं अपने को भी देखने में समर्थ नहीं हूँ। यह प्रकाश मुझे भी दीजिये जिससे कि मैं अपने शान्त स्वभाव के एक क्षण को दर्शन कर सकूँ । इससे ही लौकिक प्रकाश का प्रतीक यह तुच्छ दीपक लाया हूँ भेंट, मानो आपकी ज्योति से उद्योतित हुआ मैं स्वयं ही दीपक बन गया हूँ आज । ७. हे अध्वर ! हे तेजःपुञ्ज ! हे अग्नि ! आपके विशुद्ध रूप के दर्शन से तथा आपके चिन्तन के प्रसाद से मेरे दो भस्मीभूत हुए जा रहे हैं। अपने इसी भाव को पुष्ट करने के लिये मैं आपके समक्ष धूपायन से प्रज्जवलित अग्नि के अन्दर अष्टांग-धूप समर्पण कर रहा हूँ जिसकी सुगन्धि और धूम ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो मेरी भाव-शुद्धि से मेरे साथ एकमेक हुई कर्मरज उड़ी जा रही है, मेरा भार हलका होता जा रहा है, और मुझे सच्ची शान्ति, आनन्द व तेज प्राप्त हो रहे हैं । ८. हे मिष्टफल-प्रदायक ! आपको तो आपका लक्ष्यबिन्दु जो शान्ति, उस फल की प्राप्ति हो चुकी है। आप तो उसके शाश्वत-स्वाद में मग्न हो रहे हैं। कुछ मेरी ओर भी तो निहारिये, इस भिखारी की ओर भी तो देखिये, जो दर-दर की ठोकरें खाता कितनी कठिनाई से आया है इस द्वार पर हर ओर से निराश होकर आये हुए इसे यहाँ से निराश न लौटाइये । इस फल का थोड़ा टुकड़ा मेरी झोली में भी डाल दीजिये, मैं भी दुआयें दूंगा आपको। यह तुच्छ लौकिक फल पड़ा है मेरी झोली में, निःसार सा । परन्तु क्या करूँ, इसके अतिरिक्त और कुछ है भी कहाँ मेरे पास, जो कि भेंट करूँ ? लीजिये इसे ही भेंट चढ़ाये देता हूँ परन्तु वह अपने वाला अलौकिक फल 'शान्ति' मुझे प्रदान कर दीजिये । और इसी प्रकार की अनेकों उठने वाली अन्तरंग की मधुर-मधुर कल्पनाओं पर बैठकर ऊँची-ऊँची उड़ानें भरता, प्रभु के साथ तन्मय ही होने जा रहा हूँ। इन बाह्य के जल आदिक द्रव्यों से भगवान की अर्चना की जो यह क्रिया है, उसे कहते हैं द्रव्य पूजा, बाह्य पूजा । अन्तरंग व बाह्य दोनों अंगों में गुंथी यह है वास्तविक देव पूजा जो एक शान्ति का उपासक, शान्ति के आदर्श अपने देव के प्रति करता है । केवल पूजा ही नहीं साक्षात् शान्ति का वेदन ही हो जाता है इसमें । देव के लिये नहीं बल्कि अपनी शान्ति के आस्वादन के लिये होती है यह पूजा । ये उद्गार हैं जो स्वतन्त्र रूप स्वयं ही प्रवाहित हो उठते हैं । ६. शंका समाधान —- देव पूजा की बात चलती है। इस प्रकरण के अन्तर्गत अनेकों प्रश्न सामने आकर मानस-पट पर घूमने लगते हैं । यथा - १. देव कौन ? २. पूजा क्या ? ३. बाह्य पूजा की आवश्यकताएँ क्यों ? ४. पूजा में ईश्वर - कर्त्तावाद क्यों ? ५. प्रतिमा की आवश्यकता क्यों ? ६. पत्थर टक्कर मारने से क्या लाभ ? ७. जड़ - प्रतिमा के प्रति भक्ति कैसी ? ८. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधान क्यों ? ९. जो स्वयं अपनी रक्षा करने को समर्थ नहीं, वह प्रतिमा किसी को क्या दे सकती है और कैसे दे सकती है ? १०. मन्दिर की आवश्यकता क्या ?११. मन्दिर में कैसे आना चाहिए और वहाँ आकर क्या करना चाहिए ? लीजिए क्रम से इनके उत्तर देता हूँ । (१) देव विषयक पहला प्रश्न है 'देव कौन ?' वास्तव में देव के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता कि अमुक ही देव है, क्योंकि 'देव' नाम आदर्श का है, और आदर्श इच्छा के पूर्ण-लक्ष्य का नाम है । अत: देव की परीक्षा अपने अभिप्राय पर से ही की जा सकती है। जैसा अपना अभिप्राय हो या जैसी अपनी इच्छा हो वैसा ही उस व्यक्ति-विशेष का लक्ष्य होगा, और वैसे ही किसी यथार्थ या काल्पनिक आदर्श को वह स्वीकार करेगा । उसकी दृष्टि उस पर ही जाकर ठहरेगी जैसा कि वह बनना चाहता है। बस वह ही है उसके लिए सच्चा देव । जैसे कि धनवान बनने की इच्छा वाले का देव कुबेर हो सकता है, वीतरागी शान्त-मुद्राधारी यह देव नहीं जिसकी कि बात चलने वाली है । पितृ-भक्ति की इच्छा वाले का देव राम या श्रवण कुमार हो सकता है वीतरागी देव नहीं, और इसी प्रकार अन्यत्र भी । परन्तु यहां तो शान्तिपथ-प्रदर्शन चल रहा है इसलिए केवल शान्ति प्राप्ति की इच्छा लेकर देव को खोजना है, या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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