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२३. देव-पूजा
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५. अष्टद्रव्य-पूजा प्रेम, धन्य है आपकी नि:स्वार्थता, धन्य है आपका त्याग । आज तक आपकी शरण में न आकर व्यर्थ ही ठोकरें खाता रहा, क्षमा कर दीजिए अब मुझे । मैं अधम हूँ, नीच हूँ, पापी हूँ आपकी ओर आज तक न देखा, उन दुष्टों को ही मित्र समझता रहा जिन्होंने सब कुछ लूटा और यदि कदाचित् इस टोकने का भी पता होता तो अब तक साथ न छोड़ते। आप न होते तो आज मैं रंक से राव कैसे बनता ? मैं कैसे आन्तरिक कृतार्थता प्रकट करूँ? कहने को शब्द भी तो नहीं हैं मेरे पास । किंकर्तव्य-विमूढ़ सा मानो सब कुछ भूल गया हूँ मैं । जी करता है कि आपके चरणों में बिछ जाऊं । क्या करूँ, क्या न करूँ कुछ सूझ नहीं पड़ता। 'आशीर्वाद दीजिए चचा', आखिर यही निकलता है मुँह से । और इस प्रकार का कुछ अन्तप्रवाह बह रहा था उसके हृदय से आज। आंखों से अश्रुधारा मानो उसकी सब पिछली भूलों को धोए डाल रही थी। और यह सब कुछ वह किसी दबाव से नहीं कर रहा था, स्वत: ही उससे ऐसा हो रहा था । यदि और भी शक्ति होती तो और भी सब कुछ करने को तैयार था आज वह अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करने के लिए, नया जीवन जो मिला था उसे आज।
५. अष्टद्रव्य-पूजा-आप भी क्या ऐसा ही न करते यदि होते उस परिस्थिति में ? यदि कृतज्ञ होते तो अवश्य ऐसा ही करते क्योंकि यह स्वभाव ही है एक कृतज्ञ का, उपकारी के प्रति सहज भक्ति सहज बहुमान । यही है वह भाव जिसके प्रति कि संकेत किया गया था-अन्तरंग शान्ति के किञ्चित् वेदन के माधुर्य से निकला हुआ देव के प्रति का स्वाभाविक बहुमान, आदर्श-भक्ति, आदर्श-पूजा, भाव-पूजा; और इस बहुमान से प्रेरित होकर अपनी योग्यतानुसार कुछ शब्दों की, तथा अपने उद्गारों की, तथा कुछ सामग्री आदि की उनके चरणों में भेंट, कुछ याचनायें, सो है बाह्य पूजा, द्रव्य पूजा।
१. हे नाथ ! इस तृप्तिकर अतुल शान्ति में विश्राम करते हुए आप तो, जन्म-जरा-मरण से अतीत, क्षण-क्षण में वर्तने वाले दाहोत्पादक विकल्पों की दाह से अति दूर स्वयं एक शीतल सरोवर हो । मुझ को भी शीतलता प्रदान कीजिये, इन विकल्पों से मेरी रक्षा कीजिये प्रभु । उस अलौकिक शीतलता को पाने की जिज्ञासा लेकर लौकिक
तीक यह जल लाया हूँ आपके चरणों पर चढाने, मानो मेरे उदगार ही जल बनकर बह निकले हैं आज। २. हे देव ! इस शीतल शान्त-सरोवर में वास करके भव-संताप के दाह का नाश कर दिया है आपने। मुझ संतप्त का दाह भी नाश कीजिये प्रभु । बड़ा खेदखिन्न हो रहा हूँ, चिन्ता का ताप अब सहा नहीं जाता, इच्छाओं में भड़ाभड़ जल रहा हूँ। मेरी भी यह दाह शान्त कीजिये नाथ । अलौकिक शीतलता की इच्छा लेकर लौकिक दाह-विनाशक यह चन्दन लाया हूँ आपके चरणों की भेंट, मानो साक्षात् चन्दन बनकर आया हूँ आपके चरणों की बलिहारी जाने के लिये।
___३. हे शान्ति के अक्षय भण्डार ! हे अतुल निधान ! क्षयकर डाली हैं, भग्न कर डाली हैं, सब व्याकुलतायें आपने । यह अक्षय शान्ति मुझको भी प्रदान कीजिये नाथ । इसी से यह अक्षत् अर्थात् बिना टूटे हुए मुक्ताफल लाया हूँ इन चरणों की भेंट, मानो अपनी अक्षय निधि की याद बनकर स्वयं न्यौछावर होने आया हूँ आपके चरणों पर।
४. हे त्रिलोकजेता ! शान्ति-रानी का कर ग्रहण करके विश्व-विजयी बन, इस कामदेव को सदा के लिये भस्म कर दिया है आपने । देखो दूर ही खड़ा वह कांप रहा है। आपके निकट आने का साहस कहाँ है उसमें ? पर आपसे पराजित हुआ वह अपने क्रोध की ज्वाला में भस्म किये जा रहा है मुझ जैसे तुच्छ व्यक्तियों को । लोक की सम्पदा की असीम कामनाओं में मानो जला जा रहा हूँ मैं । रक्षा कीजिये प्रभु इस दुष्ट काम से । आपकी शरण को छोड़कर कहाँ जाऊँ अब जहाँ इसका साया न दिखाई दे ? आपकी शान्ति का कोमल स्पर्श करने तथा इसके सुगन्धित श्वास में अपने को खो देने की इच्छा लेकर यह लौकिक कोमलता व सुगन्धि का प्रतीक पुष्प लाया हूँ, मानो अत्यन्त सुगन्धित शान्त व कोमल इन चरण कमलों का रस लेने के लिये स्वयं भँवरा बनकर आया हूँ।
५. हे क्षुधा-निवारक ! अनादि काल से लगी इन धूल सरीखे आकर्षक पर-पदार्थों की भूख शान्त कर ली है आपने । मैं भी तो बहुत क्षुधित हूँ । तीन-लोक की सम्पत्ति का भोग कर-करके भी जो आज तक तृप्त नहीं हुई है, ऐसी मेरी भूख को भी शान्त कर दीजिये प्रभु । इसी से लौकिक क्षुधा-निवारक यह स्वादिष्ट चरु नैवैद्यादि मिष्टान्न लाया हूँ इन चरणों की भेंट, मानो इस शान्ति से अत्यन्त तृप्तवत् हुआ मैं आज स्वयं अत्यन्त मिष्ट बनकर विश्राम पाने आया हूँ यहाँ ।
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