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२३. देव- पूजा
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४. आदर्श-पूजा
व्यथा किसे सुनाते ? मित्र पर दृष्टि पड़ी और सब कुछ व्यथा उगल दी। “मित्र इस संकट में मेरी कुछ सहायता करो, मैं तो एक-दो दिन का हूँ, इस बच्चे की रक्षा का भार तुम्हें देता हूँ ।" मित्र स्वयं भी एक सेठ थे, जगत के अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे उन्होंने । बोले, “चिन्ता न करो, शान्ति धरो, मुझ पर विश्वास करो, बच्चे का जीवन कुछ ही दिनों में पलटा खायेगा ।" सारी नगदी, जेवर, हीरे-जवाहरात घर के एक कोने में गाड़ दिये, और सेठ जी सो गये सदा के लिये । लड़का कई साल तक जायदाद बेच-बेचकर लुटाता रहा और एक दिन फ़कीर हो गया। एक-एक करके मित्रों ने अपना रास्ता नापा । लड़का बेचारा लगा भूखा मरने, कभी सूखे चने चबा लेता, कभी पानी ही पीकर सन्तोष कर लेता । तनपर वस्त्र थे पर नाम मात्र को। रहने को एक मकान ही रह गया था अब उसके पास और वह भी काल के प्रहारों से भाग्नावशेष मात्र । भीख मांगने का साहस होता तो अवश्य भिखारी बन गया होता, पर इस प्रकार कब तक चले ? एक दिन व्याकुलचित्त उसके पाँव ले चले उसे किसी ओर, उसी अपने पिता के मित्र अपने चाचा के पास । चाचा जी ! आ गया आखिर आज आपकी शरण में। आपको छोड़कर और जाता भी कहाँ ? पिछली बातें याद दिलाकर मुझे लज्जित न करना, मेरा अन्तष्करण स्वयं मुझे धुतकार रहा है, उसकी मार असह्य है इस वेदना को न बढ़ाना अपितु मेरी रक्षा करना ।
दयालु चाचा बोले कि "बेटा चिन्ता न कर, यह मुझे पहले से पता था कि तू एक दिन अवश्य आएगा यहाँ । अच्छा ही किया आ गया। कब तक चलता व्यर्थ भूखा रहकर और तुझे इस दशा में रहने की आवश्यकता भी क्या है ? तू तो अब भी करोड़ों को स्वामी है, अब भी चाहे तो व्यापार करके अपने पिता से भी अधिक धनवान हो सकता है । कमी ही क्या है तुझको ?” परन्तु विश्वास कैसे आए ? “नहीं-नहीं चचा, हंसी न कीजिए, एक-एक रोटी को मोहताज अब सेठ बनने के स्वप्न देखने को अवकाश कहाँ ? अब तो रोटी चाहिए।” “घबरा नहीं बेटा ! मैं हंसी नहीं कर रहा हूँ, ठीक ही कहता हूँ, विश्वास कर मुझ पर तेरे हित की बात है, तू अब भी हजारों को खिला देने योग्य है । रोटी की क्या कमी है तुझे ? जा अपने घर का दक्षिणी कोना खोद डाल ।” सहम ही गया मानो यह सुनकर कोई वज्र ही पड़ा हो जैसे उस पर, “सब ओर से निराश्रय हो गया हूँ, एक यह मकान शेष है, यह भी काल के प्रहारों द्वारा खाया हुआ । मकान भी काहे का, एक छत मात्र है जिसके नीचे सर छिपा लेता हूँ । खोद दिया तो कभी खड़ा न रह सकेगा, यह भी मुँह मोड़ जाएगा । इतनी बड़ी चोट सहने की इसमें शक्ति ही कहाँ है ? “नहीं-नहीं चचा ! मुझे बेघर बनाने की बात न कीजिए, अब अधिक परीक्षा न लीजिए, बस पेट भरने भर की इच्छा है ।" "ओह ! दया आती है तेरी दशा पर, भूख का मारा आज तू जितना भी संशय करे थोड़ा है। पर नहीं, अब इसे छोड़ विश्वास कर, जैसे मैं कहता हूँ वैसे कर, जा अपने घर का दक्षिणी कोना खोद डाल ।”
लड़खड़ाता हुआ वह आखिर चल पड़ा, कुछ निराशा में डूबा । परन्तु अब मार्ग भी क्या है ? देखा जाएगा। जहाँ इतना सहा यह भी सह लूंगा, चचा के अतिरिक्त अब है भी कौन जिसके पास जाऊं अपनी पुकार सुनाने ? घर खोदना प्रारम्भ किया और कुछ देर के पश्चात् — हैं ! यह 'खट' की ध्वनि कैसी ? क्या है इसमें दबा हुआ ? कोई टोकना सा प्रतीत होता है। अरे यह तो है वही जिसकी ओर चचा का संकेत हुआ था और एक ही बार घूम गई चचा की सब बातें उसके हृदय - पट पर। 'तू अब भी करोड़पति है, तू अब भी करोड़पति है' मानो कोने-कोने से यही आवाज़ आ रही थी । पागल सा हो गया वह कुछ भावुकता के आवेश में, भूल गया आगे खोदना । हाथ भी कैसे चलता ? कृतघ्नी तो था नहीं । यद्यपि पृथ्वी का टोकना पृथ्वी में ही था, पर सेठ बन चुका था आज वह । 'नहीं-नहीं' यह कृतज्ञता न कहलाएगी । यह सब कुछ मेरा है ही कब ? मेरा होता तो भूखा क्यों मरता ? और यदि दूसरे मकानों के साथ इसे भी बेच देता तो किसका होता यह टोकना ? नहीं-नहीं, मेरा कुछ भी नहीं, भले यहाँ रहता हूँ। वे इतनी प्रेरणा न देते तो खोदने को ही कब तैयार होता मैं ?” और इसी प्रकार के विचारों में खो गया वह रुक गए उसके हाथ, और चल पड़ा दौड़ा-दौड़ा अपने चचा के घर की ओर ।
" चलिए चचा चलिए, सम्भाल लीजिए वह जो वहाँ से निकला है, आपने ही बताया था, आपका ही है।” “बेटा ! जा उसको निकाल ले, व्यापार प्रारम्भ कर, तेरा कल्याण होगा ।" धन्य है चचा आपकी सहानुभूति, धन्य है आपका
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