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________________ १४८ २३. देव-पूजा ६.शंका समाधान प्रकार की मुख्य बाधायें हैं जो मेरी शान्ति को बाधित करती हैं-एक इन्द्रिय ज्ञान व उनके द्वारा जाने गये पदार्थ, और दूसरा मन तथा उसमें उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष पदार्थों सम्बन्धी विकल्प । इन दोनों बाधाओं में से इन्द्रिय ज्ञान सम्बन्धी बाधा स्थूल है क्योंकि वह बाह्य में पड़े पदार्थों का आश्रय लिये बिना उत्पन्न नहीं होती, और मन सम्बन्धी बाधा सूक्ष्म है क्योंकि इसके विकल्पों को बाह्य में किसी पदार्थ के आश्रय की आवश्यकता नहीं। मन्दिर के वातावराण व घर आदि के वातावरण में इतना ही अन्तर है कि घर आदि में तो दोनों प्रकार की बाधायें सम्भव हैं परन्तु मन्दिर में केवल मन सम्बन्धी, क्योंकि रागात्मक बाह्य पदार्थ वहाँ दिखाई ही नहीं देते । घर बैठकर विकल्पों के प्रशमन का पुरुषार्थ करने में दोनों प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है जिसमें अधिक बल की आवश्यकता है, और मन्दिर में बैठकर वही पुरुषार्थ करने में केवल एक बाधा का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्रतिमा की उपस्थिति मझे शान्ति के दर्शन करने में सहायता देती है, इसलिए कम बल से भी काम चल जाता है यदि विकल्पों के प्रशमन के लिए पर्याप्त बल मुझ में हो तो मन्दिर की वास्तव में कोई आवश्यकता नहीं थी। तब तो घर पर बैठे, रेल में बैठे या सड़कपर चलते, किसी स्थान पर भी मैं विकल्पों को दबाकर शान्ति में मग्न हो जाता । परन्तु अनुभव करने पर यह जाना जाता है कि जीवन-चर्या में विकल्प बजाये दबने के अधिकाधिक वृद्धि को ही प्राप्त होते हैं, इस लिए विकल्प प्रशमन के प्रयोजनार्थ घर आदि का वातावरण प्रतिकूल पड़ता है और मन्दिर का वातावरण अनुकूल। आगे भी सभी जगह यही सिद्धान्त लागू करना पड़ेगा कि अनुकूल वातावरण में रहकर पुरुषार्थ करने में कम बल लगाना पड़ता है। इसलिए आगे के सब प्रकरणों में जहाँ अन्तरंग विकल्पों के संवरण अर्थात् प्रशमन का अनेक दिशाओं में प्रसार होने लगेगा वहाँ जिस-किस प्रकार भी प्रतिकूल निमित्तों का त्याग और अनुकूल निमित्तों का ग्रहण करने को दृष्टि से ओझल नहीं किया जा सकता। कारण कि मैं अधिक बलवालों की कोटि में नहीं हूँ, मेरी शक्ति बहुत हीन है और जरासी बात में विकल्प उठ खड़े होते हैं। आगें यद्यपि शक्ति बढ़ती चली जाएगी, तदपि तदनुसार अनुकूलताएँ बनाने का प्रयास बराबर चलता रहेगा, भले ही पहले की अनुकूलताओं का आगे चलकर कोई मूल्य न रह जाय। साधु दशा में पहुँच जाने पर यद्यपि मन्दिर का अधिक मूल्य नहीं रह जाता, परन्तु किसी भी अन्य एकान्त स्थान का मूल्य बन जाता है। (११) अब यह तो सिद्ध हो गया कि मन्दिर में आकर अनुकूल वातावरण के कारण मैं चाहूँ तो किञ्चित शान्ति प्राप्त कर सकता हूँ । परन्तु मन्दिर में आ जाने को पर्याप्त मानकर यदि सन्तोष कर बैलूं तो क्या उस प्रयोजन की सिद्धि सम्भव है ? नहीं, क्योंकि यद्यपि एक स्थल बाधा टल चकी है परन्त अत्यन्त प्रबल मन सम्बन्धी सूक्ष्म बाधा जीतनी बाकी है। यदि उस बाधा को जीतने का प्रयत्न किए बिना ही, हिताहित के विवेक से हीन केवल साम्प्रदायिक विश्वास के आधार पर मन्दिर में आकर हाथ जोडूं और चला जाऊँ तो इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिए इतना जानना आवश्यक है कि 'मन्दिर में क्यों आना चाहिए, कैसे आना चाहिए, और वहाँ आकर क्या करना चाहिए।' उपरोक्त तीन प्रश्नों में से पहले प्रश्न का उत्तर तो दिया जा चुका कि केवल विकल्पों का प्रशमन करना ही मन्दिर में आने का प्रयोजन है । इसलिए यहाँ आने से यदि विकल्प किञ्चित् भी शान्त नहीं होते तो यहाँ आना निरर्थक है। तीसरे प्रश्न का उत्तर भी लगभग आ गया, कि यहाँ आकर प्रतिमा में जीवित देव का दर्शन करते हुए निज शान्ति में लय होने का प्रयास करना चाहिए। मन्दिर में आकर यदि 'यह बड़ा सुन्दर है, ये स्तम्भ संगमरमर के हैं, इस पर बहुत पैसा लगा है, अभी इसमें इतनी कमी है', इत्यादि विकल्पों में उलझकर देव-दर्शन का कार्य भूल बैलूं, तो यहाँ आना निरर्थक ही हुआ। इसका यह अर्थ नहीं कि यहाँ न आयें, बल्कि यह है कि यहाँ आकर इन विकल्पों में उलझने की बजाय यथार्थ देव-दर्शन का कार्य करें । देव दर्शन व पूजा में कोई विशेष अन्तर नहीं है, दर्शन भी पूजन ही है। अब यह देखना है कि मन्दिर में कैसे आया जाए? प्रयोजन पर ध्यान दीजिये । विकल्पों के प्रशमनार्थ व शान्ति के अनभवनार्थ आता हूँ यहाँ । शान्ति के दर्शन तो देव पजा से हो जाते हैं. पर विकल्पों का प्रशमन स्वयं करना पडेगा। विकल्पों की उपस्थिति में देव के भी दर्शन न कर सकोगे । नेत्र करते होंगे दर्शन प्रतिमा के और मन भागता फिरेगा घर व बाजार में । मन्दिर तो केवल निमित्त मात्र है। यदि स्वयं पुरुषार्थ पूर्वक विकल्पों का किञ्चित् त्याग करूँ तो मन्दिर व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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