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२३. देव-पूजा
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६.शंका समाधान
वातावरण सहायक कहलायें, और यदि मन का व्यापार चलने दूं, इस पर ब्रेक न लगाऊँ, तो मन्दिर तो जबरदस्ती मुझसे विकल्प छीनने से रहा। अत: मन्दिर के लिये घर से चलते समय पहला पग जब आगे बढ़े तब से ही अपना मन्दिर सम्बन्धी कार्य प्रारम्भ करना है। _ “अब चला हूँ प्रभु के साथ तन्मय होने, अपनी शान्ति का अथवा तृप्ति का स्वाद लेने, परम आह्लाद में नृत्य करने । मानो प्रभु की वीतरागता अभी से घूमने लगी है मेरे हृदयपट पर । अरे चेतन ! ये विकल्प क्यों ? क्या नाता है इन पदार्थों से, कुटुम्ब से, इस सम्पत्ति से या इस शरीर से तेरा ? सब जड़ या चेतन पथिक जा रहे हैं अपने-अपने मार्ग पर बराबर बढते हुए एक लक्ष्य की ओर, जाने क्यों ? मैं भी जा रहा था अब तक इसके साथ, पर मुझे मुड़ जाना है दूसरी पगडंडी पर, और इन सबों को जाना है सीधे इसी पगडण्डी पर । जाने दे इन्हें, तुझे क्या मतलब, कहीं जाएं, तू अपना मार्ग देख और ये देखें अपना । निभा लिया जितना साथ निभाना था, सदा किसका साथ निभता है, यों ही मिलते
और बिछुड़ते रहते हैं, अब इधर मत देख, इस अपने मार्ग की ओर देख । इस पर जाते हुए भी तो कोई न कोई साथी मिल ही जायेगा, घबराता क्यों है? भले कम पथिक जाते हों इस मार्ग पर, परन्तु जाते तो अवश्य हैं, मार्ग सूना तो नहीं है ? वे तो थे सब स्वार्थी लुटेरे, और इधर मिलेंगे नि:स्वार्थी, करुणाधारी । वह देख दूर दिखाई दे रहा है कोई जाता हुआ। कितनी शान्त है उसकी चाल?” और इसी प्रकारकी विचारधारा में बहते-बहते न जाने कब आ जाय मन्दिर की ड्योढ़ी। ___“आज भगवान् के दर्शन करने जा रहा हूँ , परम अभीष्ट शान्ति की उपासना करने जा रहा हूँ। सर्व विकल्पों की गठरी छोड़ दे इसी ड्योढ़ी के बाहर । इसे सर पर रखे कैसे जायेगा आगे, और अच्छा भी क्या लगेगा इस घसियारे की सी दशा में प्रभु के पास जाता हुआ ? यह माली तो यहाँ बैठा ही है, जरा देखते रहना भाई ! वापिस आकर उठा लूंगा ", और इस प्रकार सब विकल्पों के भार को त्याग कर प्रवेश करता हूँ मन्दिर में, मानो आज मैं साधु ही हूँ। मेरे में और साधु में अन्तर ही क्या है ? उसने घर सम्पत्ति को त्याग वैराग्य धारा और मैंने भी घर सम्पत्ति तथा उसके विकल्पों की गठरी को त्याग कर वैराग्य धारा, वह भी शान्ति की ओर उन्मुख और मैं भी शान्ति की ओर उन्मुख । रहे ये वस्त्र, सो इनकी कोई मुख्यता नहीं, क्योंकि इस समय देव के अतिरिक्त मुझे कुछ दिखाई ही नहीं देता, यहाँ वस्त्र बेचारे मेरी दृष्टि में कैसे आवे? 'और यह देखो आ गया अब मैं साक्षात् प्रभु के सामने ।' इसके पश्चात् वही तल्लीनता जिसके सम्बन्ध में पहले काफी बताया जा चुका है।
इस प्रकार अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार किसी निश्चित समय के लिये १५ मिनट, आधा घण्टे या एक घण्टे के लिए सर्वसंग-विमुक्त होकर, घर-गृहस्थी से नाता तोड़कर, थोड़े समय के लिये मानो साधु हूँ ऐसा मानकर, यदि मन्दिर में प्रवेश करूँ तो मेरे प्रयोजन की सिद्धि हो, और उसी का नाम है वास्तव में मन्दिर जाना । उतने समय के लिये वैसी दृढ़ता होनी चाहिए, जैसी कि सेठ धनञ्जय को हुई थी। धन की लाभ-हानि तो तुच्छ सी बात है, यदि पुत्र-मृत्यु का समाचार भी आ जाए तो नेत्र न हटें प्रभु पर से और कोई विकल्प न आने पावे मन में, “अरे ! उस पुत्र का नाता है ही कहाँ मेरे पास इस समय? वह तो बाहर पड़ा है गठरी में। भाई ! ज़रा बाहर प्रतीक्षा करो, जब बाहर जाऊं तो याद दिलाना । खोलूँगा उस गठरी में तुम्हारा कागज, कहीं मिल गया तो। अब तो कुछ याद नहीं पड़ता, अभी दफ़्तर का समय हुआ नहीं, शान्ति का भोजन कर लूं, फिर आऊंगा, फिर सुनूँगा कि क्या कहना है तुम्हें, अब इस समय अवकाश नहीं है।" ऐसे होने चाहियें विचार उस अवसर पर, तब कहा जा सकता है कि मन्दिर में जाना सफल हुआ, और उसे तू स्वयं अनुभव करेगा । यह है वास्तविक देव दर्शन ।
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