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२४. गुरु-उपासना
( १. पुनरावृत्ति; २. गुरु कौन; ३. आदर्श शिक्षा; ४. आदर्श उपासना; ५. पराश्रय में स्वाश्रय; ६. सच्चे गुरु। )
१. पुनरावृत्ति-पूर्व संस्कारों को जीतकर महान-विकल्प-सागर से पार हो जाने वाले, तथा गम्भीर प्रशान्त सागर की अथाह गुरुता को प्राप्त हे गुरुवर ! मुझे भी गुरुता प्रदान करें । हे कुशल खेवटिया ! मेरी नौका इस भवसागर से पार करें । उस पार, जहाँ न है राग द्वेष की ज्वाला और न है हर्ष-शोक की आंधी, है एक गहन शान्ति । आज मैं अशान्त हँ, और प्रतिक्षण मिलने वाली अंतरंग की प्रेरणा मुझे शान्त-द्वीप की ओर जाने के लिये वाचाल कर रही है, परन्त विकल्पों की इस आंधी में अत्यन्त विशाल व भयानक इस भव-सागर को इन शक्तिहीन भुजाओं से कैसे पार करूं?
हे गुरुवर ! यदि जन्मान्ध इस पामर को आंखें प्रदान करके आप यह न दर्शाते कि मेरा घर शान्ति है और आज मैं अशान्त-सागर में गोते खा रहा हूँ, तो किस प्रकार मुझे आपकी शरण भाती, मैं कैसे यह समझ पाता कि मैं तो चिदानन्दघन पूर्ण परमेश्वर, आनन्दमूर्ति, तथा ज्ञान शरीरी, वर्तमान में स्थित प्रभु आत्मा हूँ, चैतन्य हूँ, अमूर्तिक हूं?
बीव-तत्त्व के ऐसे श्रद्धान बिना कैसे यह विश्वास करता कि, 'ये मेरे हैं मैं इनका हूँ, इनसे मुझे सुख-दुख है और मुझ से इन्हें सुख-दुख है' इस प्रकार की धारणाओं के आधार पर दीखने वाले भिन्न क्षेत्रावगाही स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि तथा मेरे आंगन में रहकर नृत्य करने वाला यह चमड़े का शरीर अथवा सूक्ष्म-कार्मण-शरीर और नित्य उठने वाले विकल्प आदि, सभी पदार्थ 'पर' हैं, मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं, इनमें मेरा हित निहित नहीं है । आज तक सदा यही मानता आया है कि. “इनका कार्य मैं करता है और इनके कारण मेरा काम होता है. इनके लिए मैं कार्य करता हूँ और मेरे लिये ये काम करते हैं, मेरे स्वभाव में से इनका कार्य अर्थात् लाभ हानि निकलती है और इनमें से मेरा कार्य बनता है, मेरे आधार पर इनका जीवन व सत्ता है और इनके आधार पर मेरा जीवन व सत्ता है, मैं न होऊं तो ये न हों, और ये न हों तो मैं न होऊं, मैं इनकी रक्षा करता हूँ और ये मेरी रक्षा करते हैं, ये न होते तो मेरा भी कल्याण हो गया होता, न्याय अन्याय कभी न करता । मुझ निर्दोष को दोषी बनाने वाले ये हैं, मैं तो उज्ज्वल निर्दोष हूँ", इत्यादि । इस प्रकार की पर पदार्थों के साथ षट्कारकी अभेद बुद्धि के कारण इनके ही काम में व्यग्रता धारण कर, अपने काम से विमुख मैं अशान्त बना हुआ है, और मजा यह कि फिर भी चाहता शान्ति ही हैं। यह सब आपका ही प्रसाद है कि प्रत्यक्ष पर पदार्थों के रूप में अपने से बिल्कल भिन्न षटकारकी रूप से पथक देखने में समर्थ हआ है. इन सबको अपनी दृष्टि में अजीव-तत्त्वरूप देख पाया हूँ। वह मेरी भारी भूल थी कि 'अजीव इतने होते हैं, इतने प्रकार के होते हैं, इनके लक्षण ये हैं' इत्यादि जानने को ही अजीव-तत्त्व का श्रद्धान गिनता रहा । कभी विश्लेषण द्वारा स्व व पर को जुदा करके नहीं देखा। _ 'यदि मेरी भूल है तो हुआ करे, इस भूल से मेरी हानि ही क्या है ?' इसी प्रकार की धारणा आज तक बनी रही। यह भी कभी सोचने को अवकाश न मिला कि मेरी वर्तमान की दशा क्या है, और शान्ति का स्वरूप व उसकी प्राप्ति का सच्चा उपाय क्या है ? उपरोक्त पर-पदार्थों की व्यग्रता में, इच्छाओं के आधार पर अर्थात् इच्छाओं को
कर मैं शान्ति खोजने बैठा हूँ. यह महान आश्चर्य है। आपके बिना मझे इस अन्धकार में कौन सझाता कि यही तो मेरा अपराध है, और इस अपराध के ही द्वारा पुष्ट किये गये नित्य के राग द्वेष को प्रेरित करने वाले संस्कार ही मेरे वास्तविक बन्धन हैं, अशान्ति के मूल हैं ? आपका शाब्दिक उपदेश पाकर आज तक यही मानता आया कि जड़ कर्मों का मेरे प्रदेशों में आना मात्र कोई आस्रव नाम का तत्त्व है, और उनका किसी विचित्र प्रकार से बन्ध होकर कार्मण शरीर का रूप धारण कर लेना बन्ध-तत्त्व है। आज तक अपनी शान्ति व अशान्ति को खोजने का प्रयत्न नहीं किया। कर्म हैं, ऐसे हैं, वैसे हैं, इस प्रकार के भेदों की उलझन में उलझा अपने को ज्ञानी मान बैठा, और झूठे अभिमान के शिखर पर बैठ, नीचे पड़ी बिलखती अपनी शान्ति की अवहेलना करने लगा।
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