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________________ १५१ २४. गुरु-उपासना २. गुरु कौन आपकी महान कृपा से आज वह रहस्य प्रकट हो जाने पर मुझे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है शान्ति-पथ, अशान्ति के उपरोक्त भ्रमात्मक पथ से बिल्कुल उल्टा, विपरीत दिशा में जाने वाला। धन्य है आपकी बुद्धि जो विष में से अमृत खोज निकाला। अनुमान के आधार पर यह जानकर कि 'वहाँ अशान्ति है और मुझे चाहिये शान्ति, वहाँ विकल्प हैं और मुझे चाहिये निर्विकल्पता', यह सिद्धान्त बना डाला कि शान्ति का मार्ग अशान्ति से बिल्कुल उल्टा होना चाहिये। आपने देखा कि अशान्ति उत्पन्न हो रही है पर-पदार्थों का आश्रय लेने से, अत: शान्ति का मार्ग होगा उसका आश्रय छोड़ देने से और इसलिये मुझ पामर को उपदेश में बताने लगे यही रहस्य कि यदि मैं उन पर पदार्थों का कर्ता न बनूं, उनसे लाभ हानि न मानूं, उनमें रस न लूँ, तो अवश्य शान्त हो जाऊँ । उसी मार्ग का अर्थात् संवर का प्रकरण चल रहा है । लक्ष्य है पर-पदार्थों का आश्रय कतई न हो, कर्ता-बुद्धि के आधार पर होने वाला राग व द्वेष बिल्कुल न हो। राग और द्वेष दोनों सहोदर हैं, 'यत्र राग: पदं धत्ते द्वेषस्तत्रेति निश्चयः', जहाँ राग होता है वहाँ द्वेष होता ही है। कोई द्वेष को बुरा समझे और राग को अच्छा माने सो गलत है, दोनों ही आकुलता-जनक हैं, स्वयं आकुलता स्वरूप हैं, उन दोनों को दूर करना होगा। 'ये बिल्कुल न हों' यह मेरा लक्ष्य है। मुझे इस लक्ष्य की पूर्ति करनी इष्ट है, इसे कार्यान्वित रूप देना अभीष्ट है । लक्ष्य-मात्र से तो काम चलता नहीं और उसकी प्राप्ति की जिज्ञासा रखकर उस ओर चले बिना वह लक्ष्य भी क्या ? अब देखना यह है कि क्या इस लक्ष्य की प्राप्ति एक समय में हो जानी सम्भव है, अथवा क्या सम्पूर्ण राग-द्वेष का जीवन में से विच्छेद किया जाना सम्भव है ? नहीं, लक्ष्य एक समय में निश्चित हो जाया करता है परन्तु प्राप्ति करने में अधिक समय समय लगता है। लक्ष्य बनाना एक बात है और उसकी प्राप्ति करना दसरी बात । लक्ष्य में कोई क्रम नहीं होता परन्तु प्राप्ति के लिये कोई मार्ग होता है जिसमें क्रम पड़ता है। उस मार्ग में धीरे-धीरे शक्ति-अनुसार चलना होता है, इसलिये चलते-चलते कोई आगे निकल जाता है और कोई रह जाता है पीछे, किसी में शान्ति अधिक प्रकट हो जाती है और किसी में रह जाती है कम । जितना बल लगाओ, जितनी तेजी से क़दम उठाओ उतनी ही जल्दी शान्ति के निकट पहुँच जाओ। क्या अधिक बल वाले और क्या हीन बल वाले, उस मार्ग पर चलने को देर है, पहुँच दोनों ही जायेंगे लक्ष्य पर, कोई पहले और कोई पीछे। अत: प्रभु ! अपने को असमर्थ मत समझ, उस मार्ग पर चलने की सामर्थ्य तुझमें न हो ऐसी बात नहीं है । अत: चल, भले ही धीरे-धीरे चल। शान्ति के मार्ग पर गमन करते हुए तेरा पहला कर्तव्य होगा क्या करने में ? वह होगा देव पूजा में, शान्ति के पूर्ण आदर्श के बहुमान में, उसकी भक्ति व उपासना में, अथवा चैत्य-चैत्यालय व शान्तस्वरूप प्रतिमा के भावपूर्ण दर्शन में, आदर्श पूजा में । देव कैसा होना चाहिये, प्रतिमा व मन्दिर से क्या लाभ, अनुकूल वातावरण का मन पर प्रभाव पड़ता है, इत्यादि बातें बताते हुये भली भांति यह बात दर्शा दी गई थी कि देव का आश्रय लेने का यह प्रयोजन नहीं है कि वे मुझे जबरदस्ती तार देंगे, पर यह है कि नमूने के रूप में उन्हें अपने सामने रखकर मैं अपने जीवन में उनका रूप ढालने का प्रयल कर सकू। जैसा नमूना होगा वैसा ही माल बनाया जा सकेगा, इसलिये नमूने के सम्बन्ध में अत्यन्त सावधा वर्तने की आवश्यकता है। खूब अच्छी तरह परीक्षा करके अपनी अभिलाषाओं के अनुरूप ही नमूना अर्थात् देव को उपास्य-रूप में ग्रहण करना चाहिये । बिना विवेक के जैसे-कैसे भी आदर्श से हमारा लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। २. गुरु कौन-अब दूसरे कर्त्तव्य की बात चलती है, वह है गुरु-उपासना । जिस प्रकार ऊपर अच्छी प्रकार घूम-फिरकर, अपने लक्ष्य के अनुरूप देव मैंने खोजा है, उसी प्रकार यहाँ गुरु के सम्बन्ध में जानना । गुरु मेरी नाव के खेवटिया हैं, अत: देव से भी अधिक है उनकी महत्ता । हृदय की जागृति के बिना देव को जीवित देखना, उनसे मुँह दर मुँह बात करना और जीवनोत्थान की प्रेरणायें प्राप्त करना सम्भव नहीं। परन्तु गुरु तो जीवित ही हैं, इसलिये यहाँ कठिनाई नहीं। अपने उपदेशों द्वारा अपने अभिप्राय के अनुसार घुमा सकते हैं वे अपने शिष्य की बुद्धि को, अपने कृपा-कटाक्ष द्वारा शक्तिपात करके उठा सकते हैं वे अपने शिष्य के जीवन को। यद्यपि गुरु-अन्वेषण के क्षेत्र में गुरु-परीक्षा की चर्चा यत्र तत्र सुनाई देती है, और साधारण दृष्टि से देखने पर यह युक्त भी प्रतीत होती है, तदपि तात्त्विक दृष्टि से देखने पर गुरु परीक्षा सम्भव प्रतीत नहीं होती। कारण यह कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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