SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०. उत्तम-तप २६२ २. षड्विध वाहतप लगता है उसे खूब स्वाद ले-लेकर । स्वाद लगे तो हर्ष, न स्वाद लगे तो विषाद । इस दुष्ट संस्कार के प्रति बड़े सावधान रहते हैं वे ज्ञानी । आज से नहीं गृहस्थ दशा में पहले पग से ही वे इस प्रबल संस्कार के साथ लड़ते चले आ रहे हैं । अनेकों बार पहले भी इसके सम्बन्ध में संकेत किया जा चुका है, परन्तु इस योगी ने इसे निर्मूल करने का दृढ़ संकल्प किया है। स्वाद की मख्यता मनष्य के भोजन में प्राय: छ: पदार्थों से बनती है जिन्हें 'षट-रस' कहते हैं नमक.मीठा या शक्कर, घी. तेल, दूध, दही । ये छ: रस ही भोजन को स्वादिष्ट बनाया करते हैं । इनमें से कोई एक न हो तो स्वाद ठीक नहीं बैठता, और दो तीन आदि यहाँ तक कि छहों से रहित भोजन तो घास के समान लगने लगता है । बस योगी महीनों व वर्षों के लिए इनमें से किसी एक या दो या छहों का त्याग कर देते हैं । जब कभी आहार लेने की आवश्यकता पड़े तब घासवत् भोजन करके इस खड्डे को भर लेते हैं, और इस प्रकार रस-गृद्धि के संस्कार को जीत लेते हैं वे। इस 'रसपरित्याग' का ऐसा विकृत रूप नहीं है जैसा कि आज देखने में आता है। एक रस को छोड़कर अन्य रस में गृद्धता हो जाने से वह रस जीता नहीं जा सकता; जैसे नमक के त्याग में मीठे पदार्थों का भोजन कर लेना, और मीठे के त्याग में नमकीन पदार्थों का, अथवा शक्कर के मीठे त्याग में मुनक्का का मीठा बनाकर प्रयोजन सिद्ध कर लेना और दूध के त्याग में बादामों का दूध बनाकर । इस प्रकार एक पदार्थ की बजाए दूसरे पदार्थ का ग्रहण रसत्याग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नीरस में जो अरुचि है उसका परित्याग नहीं किया जा सका है, भोजन को जिस किस प्रकार भी रसीला बनाने का ही प्रयोजन रहा है । अत: रसपरित्याग उसे कहते हैं कि नमक के त्याग में अलोना ही खाये और मीठे के त्याग में मुनक्का आदि का प्रयोग न करे, दूध भी फीका ही पी ले, इत्यादि । सच्चे योगी कृत्रिमता नहीं किया करते, का त्याग या तप दसरों को दिखाने के लिए नहीं अपने हित के अर्थ तथा संस्कारों को तोडने के अर्थ होता है। यह है भोजन सम्बन्धी चौथा तप, रस-परित्याग' । यद्यपि उपरोक्त तपों का वर्णन योगियों की अपेक्षा उत्कृष्ट रूप से दर्शाया गया है, परन्तु इससे यह अर्थ न लेना कि योगी लोग इतने उत्कृष्ट प्रकार के ही तप धारण करते हैं । जैसे गृहस्थ दशा में शाक्ति की अपेक्षा रखते हुए धीरे-धीरे बढ़ना होता है परन्तु अभिप्राय में उत्कृष्टता रहती है; वैसे ही यहाँ भी शक्ति की अपेक्षा रखते हुए ही धीरे-धीरे बढ़ना होता है परन्तु अभिप्राय में उत्कृष्टता रहती है । योगी भी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में इन तपों को जघन्य रूप से ही पालता है और गृहस्थ भी यदि चाहे तो अपनी शक्ति के अनुसार उनको पालने का अभ्यास कर सकता है। (५) जन-सम्पर्क में आने पर, अनेकों इधर-उधर की व्यर्थ बातें, देश-विदेशों के पारस्परिक युद्ध, नवीन-नवीन वैज्ञानिक खोजों के समाचार, चोरों व अपराधियों की कथायें, स्त्रियों की सुन्दरता आदि की चर्चायें, किसी की निन्दा और किसी की प्रशंसा, इत्यादिक अनेक कथा-कलाप की ओर क्यों मेरा चित्त आकर्षित होता है ? अधिक देर तक अकेला बैठा रहने में क्यों दम सा घुटने लगता है ? यह कुछ ऐसा संस्कार है जिसको तोड़े बिना अबाधित शान्ति को बनाये रखना असम्भव है। योगीजन इस संस्कार को तोड़ने के लिए जन-सम्पर्क से बचते हैं और एकान्त में वास करते हैं। किन्हीं गहन वनों में, पहाड़ की कन्दराओं में, वृक्ष की कोटरों में, किसी सूने-घर में या खण्डहरों में वास करते हैं ताकि कोई उनके पास आने न पाये। उन्हें यह पता है कि शान्ति के मार्ग से अपरिचित बेचारे लौकिक जनों के पास उपरोक्त बातें करने के सिवाय और है ही क्या ? व्यर्थ समय गवाँना है उनके साथ बातें करके तथा अनेकों विकल्प खड़े हो जाते हैं उनकी बातें सुनकर । विकल्पों से बचने के लिए तो घर छोड़ा और फिर वही विकल्प यहाँ इस दूसरे मार्ग से प्रवेश करने लगे। योगीजन कैसे सहन कर सकते हैं इस अपनी महान हानि को? यही है 'विविक्त-शय्यासन' नामका पाँचवाँ तप। (६) इनके अतिरिक्त और भी एक संस्कार है । क्षुधा-तृषा सम्बन्धी अन्तरंग बाधा के अतिरिक्त शरीर पर बाहर से आघात पहुँचाने वाली भी अनेकों बाधायें हैं-गर्मी की बाधा, सर्दी की बाधा, डांस, मच्छर, मक्खी, भिर्र, ततैये की बाधा तथा सिंहादि क्रूर पशुओं तथा दुष्ट मनुष्योंकृत अनेकों प्रकार की असह्य बाधायें । इनके अतिरिक्त भयानक शब्दों तथा भयानक दृश्यों से भय खाने की बाधा, एक आसन पर अधिक देर तक बैठे रहने की बाधा इत्यादि और भी अनेकों बाधायें हैं। कहाँ तक गिनायें ? कदाचित् दुर्भाग्यवश इन बाधाओं के आ पड़ने पर, इतनी शक्ति मुझमें कहाँ कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy