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४०. उत्तम-तप
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२. षड्विध बाह्यतप
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आतापन योग
वर्षा योग शान्ति को स्थिर रख सकूँ। यद्यपि यह जानता हूँ कि इन बाधाओं से शरीर को हानि पहँचे तो पहँचे मुझे कोई हानि नहीं पहुँच सकती क्योंकि मैं तो चैतन्य व शान्तिमूर्ति, अविनाशी व अविकारी, अमूर्तिक पदार्थ हूँ, इनमें से किसी बाधा में भी मुझे स्पर्श करने की सामर्थ्य नहीं; तदपि इस विश्वास को जीवन में उतारने के लिए अपने को असमर्थ पा रहा हूँ। कोई भी एक संस्कार ऐसे अवसर पर जबरदस्ती मेरे उपयोग को शान्ति से हटाकर इन बाधाओं में उलझा देता है । मैं बजाये शान्ति के करने लगता हूँ पीड़ा का वेदन और कर्तव्य-अकर्तव्य को भूल बैठता हूँ।
योगीजन इस दुष्ट संस्कार का निर्मूलन करने केलिए आज अपना पराक्रम दिखाने निकले हैं। स्वत: ही वे बाधायें आयें, इनकी प्रतीक्षा किए बिना स्वयं जान-बूझकर इन बाधाओं में प्रवेश कर जाते हैं वे या नवीन बाधायें उत्पन्न कर लेते हैं वे, और वहाँ उस अत्यन्त प्रतिकूल वातावरण में रहकर अभ्यास करते हैं शान्ति में स्थिरता रखने का। अनुकूल वातावरण में तो स्थिर रह सकते थे पर प्रतिकूल में स्थिर रहें तब मज़ा है, और इसलिए बैठ जाते हैं ज्येष्ठ की अग्नि बरसाती धूप में पर्वत के शिखर पर जहाँ शिलाएँ मानो अंगारे ही बनी पड़ी हों, और बैठे रहते हैं या खड़े हो जाते हैं घण्टो-घण्टों के लिए उस अग्नि में अडिग । इस प्रकार के आतापन योग द्वारा खण्ड-खण्ड कर देते हैं वे गर्मी में बाधा पहुंचाने वाले संस्कार को। इसी प्रकार पौष की तुषार बरसाती रातों में सारी-सारी रात नदी के तीर पर खड़े हुए ध्यानमुद्रा धारण करके सर्दी में बाधा पहुँचाने सम्बन्धी संस्कार को तोड़ डालते हैं वे । मूसलाधार बरसात में वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं वे । पत्तों पर गिरने के कारण और भी अधिक बिखरी हुई बौछाड़ों में, घण्टों शान्ति में स्थिर बैठे रहकर बरसात में बाधा पहुँचाने सम्बन्धी संस्कार को भी तोड़ डालते हैं वे । बरसात की रातों में वृक्ष के नीचे योग धारण करके मच्छरों की बाधा सम्बन्धी संस्कार को उखाड़ फेंकते हैं वे । एक ही आसन पर कई-कई पहर खड़े रहकर या बैठकर ध्यान करने वाले उस योगी को देखकर काँप उठता है स्थिरासन में अस्थिरता उत्पन्न करने वाला संस्कार या उसमें पीड़ा का वेदन कराने वाला संस्कार, और मापता ही दिखाई देता है अपना मार्ग।
सिंह की गर्जनाओं, हाथी की चीत्कारों, गीदड़ों की चीख-पुकारों, अजगरों की फुकारें, प्रलयकाल की आँधीवत् तीव्र पवन के झोंकों से टूट-टूट कर गिरने वाले वृक्षों की गड़गड़ाहटों, पत्तों की सरसराहटों, दिशाओं से आने वाली सायें-सायें की दिल दहला देने वाली आवाजों, आँधी से ताड़ित नदियों में क्रुद्ध नागोंवत् उछलती हुई जल की कल्लोलों के कारण वातावरण ने मानो अत्यन्त रौद्र रूप धारण किया है । ऐसे महा भयानक व विकट-वनों में दिन-रात ध्यानस्थ रहने वाले उन पराक्रमी योगियों के सामने भय के संस्कार का क्या बस चले? इसी प्रकार अन्य भी अनेकों
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