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४०. उत्तम-तप
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३. षड्विध आभ्यन्तर तप
प्रकार लोक की बड़ी से बड़ी बाधा को जानबूझकर निमन्त्रित करते हैं वे और भिड़ जाते हैं उनके साथ । यही है बाह्य-तपों में सबसे अधिक विकट 'कायक्लेश' नामवाला छटा तप।
३. षड्विध आभ्यन्तर तप-अन्तरंग में नित्य नये-नये रूप धारण करके उठने वाले विकल्पों के प्रति भी ग़ाफ़िल नहीं हैं वे । उनका मूलोच्छेद करने के लिए जागृत स्वामी की तरह सदा सावधान रहते हैं वे:
(१) तनिक सी भी राग या द्वेष सूचक कोई आहट अन्दर में मिली कि ललकारा तुरन्त उन्होंने उसे । दौड़ पड़े लेकर हाथ में निन्दन तथा गर्हण की तलवार, इस आशंका से कि घुस गया घर में कोई चोर । बेचारे इन चोरों के प्राण तो वैसे ही सूखते हैं इनके घर में प्रवेश करते हुए, यदि कोई भूला-भटका घुस भी जाए तो फिर क्या था, धर दबाया उसे
और लगे प्रायश्चित तथा दण्ड के कोड़े बरसाने उसकी कमर पर । उधेड़ दी उसकी चमड़ी, निकाल दिये उस बेचारे के प्राण, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी । अर्थात् अन्तरंग में कोई भी खोटा परिणाम उत्पन्न हो जाने पर स्वयं तो आत्मग्लानि पूर्वक अपने को धिक्कारते ही हैं, इसका अभ्यास तो गृहस्थ दशा से ही करते आ रहे हैं, परन्तु अब तो गुरु के समक्ष जाकर भी इसका भाण्डा फोड़ देते हैं वे, और किसी रोगी को कुशल वैद्य द्वारा दी गयी औषधि की भाँति बड़े उत्साह से सहर्ष तथा अपना सौभाग्य समझते हए ग्रहण करते हैं उनके द्वारा दिये गये दण्ड या प्रायश्चित को; कभी महीनों-महीनों के उपवास, कभी सारी-सारी रात निश्चल ध्यान, कभी गर्मी की धूप में अथवा सर्दी की रातों में खुले आकाश के नीचे आतापन व शीत योग, कभी दीक्षा-छेद और इसी प्रकार अन्य भी अनेकों शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं का सहर्ष आलिङ्गन । कभी-कभी तो अपने संघ को छोड़कर वर्षों तक रहना स्वीकार कर लेते हैं वे किसी दूसरे आचार्य के संघ में जहाँ उनकी बात भी पूछने वाला कोई नहीं। कौन जाने वहाँ यह कि कोई बड़े भारी विद्वान् हैं ये अथवा विशेष तपस्वी हैं ये, बड़ा भारी सम्मान है इनका अपने संघ में ? अभिमान का खण्ड-खण्ड हो जाता है इस मार से । इस प्रकार दोषों के अनुसार यथोचित प्रायश्चित लेकर अन्तरंग के दोषों का शोधन करना है 'प्रायश्चित' नाम का प्रथम आभ्यन्तरतप। इसका अभ्यास करने के लिए आवश्यकता होती है चार बातों की—१. अपने परिणामों को ठीक-ठीक पढ़ने का अभ्यास, २. दिनभर या रात्रि को स्वप्नादि में उत्पन्न हुए विभिन्न परिणामों का हिसाब-पेटा, ३. गुरु-साक्षी पूर्वक उनके प्रति निन्दन और, ४. पुन: न करने की प्रतिज्ञा। इनका भी थोड़ा सा परिचय यहाँ दे देना आवश्यक है।
अनेकविध ऐषणाओं का तथा कषायों का वास है अन्तरंग के इस चिदाभासी अथवा मानसिक जगत में; पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि, मैथुन सेवन का भाव, राग, द्वेष और न जाने क्या-क्या; कुछ स्थूल और कुछ सूक्ष्म, इतने सूक्ष्म कि बहत अधिक बद्धि लगाने पर भी जानने में न आवें । अन्दर में उत्पन्न होने वाला कोई विवक्षित परिणाम इनमें से किस जाति का है, यह जान लेना ही है 'परिणामों को पढ़ने का अभ्यास ।'
अब लो दूसरी बात, 'परिणामों का हिसाब-पेटा। जिस प्रकार एक व्यापारी साँझ को बैठकर दिन में हुए लेन-देन का अथवा लाभ-हानि का हिसाब-खाता मिलाता है, उसी प्रकार प्रात: उठने के पश्चात् से लेकर अब तक 'मैं कहाँ-कहाँ गया, किस-किस से मिला, किस-किस प्रकार किस-किस भाव से अथवा किस-किस कषाय से, क्या-क्या बातें मैंने उनसे की' इत्यादि सब बातों का हिसाब-पेटा साँझ को बैठकर मिलाना । भले ही सब बातें अथवा सूक्ष्म भाव स्मृति के विषय न बन पावें, परन्तु जितने भी अधिक से अधिक बन पावें उन सबको अपने समक्ष रखकर चिन्तवन करना कि 'मैंने यह कार्य क्यों किया', 'मैं बड़ा कृतघ्नी हूँ, 'कैसे होगा अब इस दोष का शोधन', 'कब कर पाऊँगा इसे दूर', 'हे प्रभु ! रक्षा करो मेरी इन अपराधों से', 'शक्ति दो मुझे कि पुन: न हो पावें मुझसे ऐसे कार्य फिर कभी', इत्यादि । यही है-'परिणामों का हिसाब-पेटा', 'आत्म-निन्दन' तथा 'पुन: न करने की प्रतिज्ञा।' तीसरी
त है 'गरु की साक्षी।' यद्यपि यह सब कार्य आप अपनी दकान या मकान पर अकेले बैठे भी कर सकते हो, परन्तु किसी अन्य के समक्ष अपने दोषों को कहने में तथा उनके प्रति आत्मग्लानि प्रकट करने में क्योंकि अधिक बल लगाना पड़ता है इसलिए ऐसा करने से दोषों का शोधन जल्दी हो जाता है, और यदि वह अन्य व्यक्ति
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