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________________ ८. पक्षपात निरसन १. अध्ययन पद्धति देख एक वैज्ञानिक का ढंग, और सीख कुछ उससे। अपने पूर्व के अनेकों वैज्ञानिकों व फिलास्फरों द्वारा स्वीकार किये गये सर्व ही सिद्धान्तों को स्वीकार करके, उसका प्रयोग करता है वह अपनी प्रयोग-शाला में, और एक आविष्कार निकाल देता है। कुछ अपने अनुभव भी सिद्धान्त के रूप में लिख जाता हैं, पीछे आनेवाले वैज्ञानिकों के लिये । और वे पीछेवाले भी इसीप्रकार करते हैं । सिद्धान्त में बराबर वृद्धि होती चली जा रही है, परन्तु कोई भी अपने से पूर्व सिद्धान्त को झूठा मानकर 'उसको मैं नहीं पढूंगा' ऐसा अभिप्राय नहीं बनाता। सब ही पीछे-पीछेवाले अपने से सिद्धान्तों का आश्रय लेकर चलते हैं। उन पर्व में किये गये अनसन्धानों को पनः नहीं दोहराते । इसी प्रकार तुझे भी अपने पूर्व में हुए प्रत्येक ज्ञानी के, चाहे वह किसी नाम व सम्प्रदाय का क्यों न हो अनुभव और सिद्धान्तों से कुछ सीखना चाहिये, कुछ न कुछ शिक्षा लेनी चाहिये । बाहर से ही, केवल इस आधार पर, कि 'तेरे गुरु ने तुझे अमुक बात, अमुक ही शब्दों में नहीं बताई है' उनके सिद्धान्तों को झूठा मानकर, उनसे लाभ लेने के बजाय उनसे द्वेष करना योग्य नहीं हैं । वैज्ञानिकों का यह कार्य नहीं है। जिस प्रकार प्रत्येक वैज्ञानिक जो-जो सिद्धान्त बनाता है, उसका आधार कोई कपोल कल्पना मात्र नहीं होता, बल्कि होता है उसका अपना अनुभव, जो वह अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग-विशेष के द्वारा प्राप्त करता है । पहले स्वयं प्रयोग करके उसका अनुभव करता है, और फिर दूसरों के लिये लिख जाता है, अपने अनुभव को। कोई चाहे तो उससे लाभ उठा ले न चाहे तो न उठाये । परन्तु वह सिद्धान्त स्वयं एक सत्य ही रहता है, एक ध्रुव सत्य । __इसी प्रकार अनेक ज्ञानियों ने अपने जीवन की प्रयोगशालाओं में प्रयोग किये, उस धर्म सम्बन्धी अभिप्राय की पूर्ति के मार्ग में । कुछ उसे पूर्ण कर पाये और कुछ न कर पाये, बीच में ही मृत्यु की गोद में जाना पड़ा । परन्तु जो कुछ भी उन सबने अनुभव किया, या जो-जो प्रक्रियायें उन्होंने उन-उन प्रयोगों में स्वयं अपनाईं, वे लिख गये हमारे हित के लिये, कि हम भी इनमें से कुछ तथ्य समझकर अपने प्रयोग में कुछ सहायता ले सकें । सहायता लेना चाहें तो लें, और न लेना चाहें तो न लें परन्तु वे सिद्धान्त सत्य हैं, परम सत्य । इस मार्ग में इतनी कमी दुर्भाग्यवश अवश्य रहती है, जोकि वैज्ञानिक मार्ग में देखने में नहीं आती। और वह यह है कि यहाँ कुछ स्वार्थी अनुभव-विहीन ज्ञानाभिमानी जन विकृत कर देते हैं उन सिद्धान्तों को, पीछे से अपनी धारणायें उनमें मिश्रण करके । और वैज्ञानिक मार्ग में ऐसा होने नहीं पाता । पर फिर भी वे विकृतियां दूर की जा सकती हैं कुछ अपनी बुद्धि से, अपने अनुभव के आधार पर । भो जिज्ञासु ! तनिक विचार तो सही, कि कितना बड़ा सौभाग्य है तेरा कि उन ज्ञानियों ने जो बातें बड़े बलिदानों के पश्चात् बड़े परिश्रम से जानी, बिना किसी मुल्य के दे गये तुझे । अर्थात् बड़े परिश्रम से बनाया हुआ अपना भोजन परोस गये तुझे । और आज भूखा होते हुए भी, तथा उनके द्वारा परोसा यह भोजन सामने रखा होते हुए भी, तू खा नहीं रहा है इसे, कुछ संशय के कारण या साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण, जिसका आधार है केवल पक्षपात । तुझसा मूर्ख कौन होगा? तुझसा अभागा कौन होगा? भो जिज्ञासु ! अब इस विष को उगल दे और सुन कुछ नई बात, जो आज तक सम्भवत: नहीं सुनी है और सुनी भी हो तो समझी नहीं है । सर्व दर्शनकारों के अनुभव का सार, और स्वयं मेरे अनुभव का सार, जिसमें न कहीं है किसी का खण्डन, और न है निज की बात का पक्ष । वैसा वैसा स्वयं अपने जीवन में उतार कर उसकी परीक्षा कर । बताये अनुसार ही फल हो तो ग्रहण करले, और वैसा फल न हो तो छोड़ दे। पर वाद-विवाद किस के लिये और क्यों? बाजार का सौदा है, मर्जी में आये ले, मर्जी में आये न ले। यह एक नि:स्वार्थ भावना है, तेरे कल्याण की भावना और कुछ नहीं। कछ लेना देना नहीं है तझसे । तेरे अपने कल्याण की बात है। निज हित के लिये एक बार सन तो सही. तझे अच्छी लगे बिना न रहेगी। क्यों अच्छी न लगे, तेरी अपनी बात है, घर बैठे बिना परिश्रम के मिल रही है तुझे, इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? निज हित के लिये अब पक्षपात की दाह में इसकी अवहेलना मत कर । ८. पक्षपात निरसन–परन्तु पक्षपात को छोड़ कर सुनना । नहीं तो पक्षपात का ही स्वाद आता रहेगा इस बात का स्वाद न चख सकेगा। देख एक दृष्टान्त देता हूँ। एक चींटी थी नमक की खान में रहती थी। कोई उसकी सहेली उससे मिलने गई। बोली “बहन तू कैसे रहती है यहाँ ? इस नमक के खारे स्वाद में । चल मेरे स्थान पर चल, वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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