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________________ १. अध्ययन पद्धति ८. पक्षपात निरसन बहुत अच्छा स्वाद मिलेगा तुझे, तू बड़ी प्रसन्न होगी वहाँ जाकर ।” कहने सुनने से चली आई वह, उसके साथ उसके स्थान पर, हलवाई की दुकान में । परन्तु मिठाई पर घूमते हुए भी उसको विशेष प्रसन्नता न हुई। उसकी सहेली ताड़ गई उसके हृदय की बात, और पूछ बैठी उससे "क्यों बहिन आया कुछ स्वाद ?” “नहीं कुछ विशेष स्वाद नहीं, वैसा ही सा लगता है मुझे तो, जैसा वहाँ नमक पर घूमते हुए लगता था ।” सोच में पड़ गई उसकी सहेली । यह कैसे सम्भव है ? मीठे में नमक का ही स्वाद कैसे आ सकता है ? कुछ गड़बड़ अवश्य है । झुककर देखा उसके मुख की ओर । “परन्तु बहन ! यह तेरे मुख में क्या है ?" "कुछ नहीं, चलते समय सोचा कि वहाँ यह पकवान मिले कि न मिले, थोड़ा साथ ले चल । और मुँह में धर लाई छोटी सी नमक की डली । वही है यह " । "अरे ! तो यहाँ का स्वाद कैसे आवे तुझे ? मुँह में रखी है नमक की डली, मीठे का स्वाद कैसे आयेगा ? निकाल इसे।” डरती हुई ने कुछ-कुछ झिझक व आशंका के साथ निकाला उसे । एक ओर रख दिया इसलिये कि थोड़ी देर पश्चात् पुनः उठा लेना होगा इसे, अब तो सहेली कहती है, खैर निकाल दो इसके कहने से । और उसके निकलते ही पहुंच गई दूसरे लोक में वह । “उठाले बहन ! अब इस अपनी डली को " सहेली बोली । लज्जित हो गई वह यह सुनकर, क्योंकि अब उसे कोई आकर्षण नहीं था, उस नमक की डली में । १३ बस तुम भी जबतक पक्षपात की यह डली मुख में रखे बैठे हो, नहीं चख सकोगे इस मधुर आध्यात्मिक स्वाद को । आता रहेगा केवल द्वेष का कड़वा स्वाद । एकबार मुँह में से निकालकर चखो इसे। भले फिर उठा लेना इसी अपने पहले खाजे को । परन्तु इतना विश्वास दिलाता हूं, कि एक बार के ही इस नई बात के आस्वाद से, तुम भूल जाओगे उसके स्वाद को, लज्जित हो जाओगे उस भूल पर। उसी समय पता चलेगा कि यह डली स्वादिष्ट थी कि कड़वी । दूसरा स्वाद चखे बिना कैसे जान पाओगे इसके स्वाद को ? अतः कोई भी नई बात जानने के लिये प्रारम्भ में ही पक्षपात का विष अवश्य उगलने योग्य है । किसी बात को सुनकर या किसी भी शास्त्र में पढ़कर, वक्ता या लेखक के अभिप्राय को ही समझने का प्रयत्न करना । जबरदस्ती उसके अर्थ को घुमाने का प्रयत्न न करना । वक्ता या लेखक के अभिप्राय का गला घोंटकर अपनी मान्यता व पक्ष के अनुकूल बनाने का प्रयत्न न करना । तत्त्व को अनेकों दृष्टियों से समझाया जायेगा। सब दृष्टियों को पृथक-पृथक जानकर ज्ञान में उनका सम्मिश्रण कर लेना । किसी दृष्टि का भी निषेध करने का प्रयत्न न करना अथवा किसी एक ही दृष्टि आवश्यकता से अधिक पोषण करने के लिये शब्दों में खेंचतान न करना । ऐसा करने से भी अन्य दृष्टियों का निषेध ही हो जायेगा । तथा अन्य भी अनेकों बातें हैं जो पक्षपात के आधीन पड़ी हैं। उन सब को उगल डालना | समन्वयात्मक दृष्टि बनाना, साम्यता धारण करना । इसी में निहित है तुम्हारा हित और तभी समझा या समझाया जा सकता हे तत्त्व । उपरोक्त इन सर्व पाँचों कारणों का अभाव हो जाय तो ऐसा नहीं हो सकता कि तुम धर्म के उस प्रयोजन को व उसकी महिमा को ठीक-ठीक जान न पाओ; और जानकर उससे इस जीवन में कुछ नवीन परिवर्तन लाकर, किञ्चित् इसके मिष्ट फल की प्राप्ति न कर लो; और अपनी प्रथम की ही निष्प्रयोजन धार्मिक क्रियाओं के रहस्य को समझकर उन्हें सार्थक न बना लो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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