SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. धर्म का प्रयोजन १. अन्तर की मांग; २. विज्ञान विधि; ३. सत्य पुरुषार्थ; ४. संसार वृक्ष । १. अन्तर की मांग- धर्म सम्बन्धी वास्तविकता को जानने के लिये वक्ता व श्रोता की आवश्यकताओं को तथा शिक्षण पद्धति क्रम को जानने के पश्चात्, और धर्म सम्बन्धी बात को जानने के लिये उत्साह प्रकट हो जाने के पश्चात् ; अब यह बात जानना आवश्यक है, कि धर्म कर्म की जीवन में आवश्यकता ही क्या है ? जीवन के लिये यह कुछ उपयोगी तो भासता नहीं। यदि बिना किसी धार्मिक प्रवृत्ति के ही जीवन बिताया जाए तो क्या हर्ज है ? फिलास्फर बनने के लिये कहा गया है न मुझे । प्रश्न बहुत सुन्दर है, और करना भी चाहिये था । अन्दर में उत्पन्न हुए प्रश्न को कहते हुए शर्माना नहीं चाहिए, नहीं तो यह विषय स्पष्ट न होने पायेगा । प्रश्न बेधड़क कर दिया करो, डरना नहीं । वास्तव में ही धर्म की कोई आवश्यकता न होती यदि मेरे अन्दर की सभी अभिलाषाओं की पूर्ति साधारणतः हो जाती। कोई भी पुरुषार्थ किसी प्रयोजनवश ही करने में आता है। किसी अभिलाषा विशेष की पूर्ति के लिये ही कोई कार्य किया जाता है। ऐसा कोई कार्य नहीं, जो बिना किसी अभिलाषा के किया जा रहा हो । अतः उपरोक्त बात का उत्तर पाने के लिए मुझे विश्लेषण करना होगा अपनी अभिलाषाओं का। ऐसा करने से स्पष्टतः कुछ ध्वनि अन्तरंग से आती प्रतीत होगी। इस रूप में कि "मुझे सुख चाहिए, मुझे निराकुलता चाहिये ।" यह ध्वनि छोटे बड़े सर्व ही प्राणियों की चिरपरिचित है। क्योंकि कोई भी ऐसा नहीं है जो इस ध्वनि को बराबर उठते न सुन रहा हो। और यह ध्वनि कृत्रिम भी नहीं है। किसी अन्य से प्रेरित होकर यह सीख उत्पन्न हुई हो ऐसा भी नहीं है, स्वाभाविक है । कृत्रिम बात का आधार वैज्ञानिक नहीं लिया करते परन्तु इस स्वाभाविक ध्वनि का कारण तो अवश्य जानना पड़ेगा । अपने अन्दर की इस ध्वनि से प्रेरित होकर, इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए, मैं कोई प्रयत्न न कर रहा हूँ ऐसा भी नहीं है। मैं बराबर कुछ न कुछ उद्यम कर रहा हूँ। जहाँ भी जाता हूँ कभी खाली नहीं बैठता, और कबसे करता आ रहा हूँ यह भी नहीं जानता । परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि सब कुछ करते हुए भी, बड़े से बड़ा धनवान या राजा आदि न जानेपर भी यह ध्वनि आज तक शान्त होने नही पाई है। यदि शान्त हो गई होती, या उसके लिये किया जानेवाला पुरुषार्थ जितनी देरतक चलता रहता है, उतने अन्तराल मात्र के लिये भी कदाचित् शान्त होती हुई प्रतीत होती तो अवश्य ही धर्म आदि की कोई आवश्यकता न होती। उसी पुरुषार्थ के प्रति और अधिक उद्यम करता और कदाचित् सफलता प्राप्त कर लेता । वह शान्ति की अभिलाषा ही मुझे बाध्य कर रही है कोई नया आविष्कार करने के लिये, जिसके द्वारा मैं उसकी पूर्ति कर पाऊँ । आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। इसी कारण धर्म का आविष्कार ज्ञानीजनों ने अपने जीवन में किया और उसी का उपदेश सर्व जगत को भी दिया तथा दे रहे हैं, किसी स्वार्थ के कारण नहीं, बल्कि प्रेम व करुणा के कारण कि किसी प्रकार आप भी सफल हो सकें अभिलाषा को शान्त करने में । २. विज्ञान विधि - किस प्रकार किया उन्होंने यह आविष्कार ? कहां से सीखा इसका उपाय ? कहीं बाहर से नहीं, अपने अन्दर से । उपाय ढूंढने का जो वैज्ञानिक ढंग है, उसके द्वारा उपाय ढूंढने का वैज्ञानिक व स्वाभाविक ढंग यद्यपि सबके अनुभव में प्रतिदिन आ रहा है, पर विश्लेषण न करने के कारण सैद्धान्तिक रूप से उसकी धारणा किसी को नहीं है । देखिये उस कबूतर को जिसकी अभिलाषा है कि आपके कमरे में किसी न किसी प्रकार प्रवेश कर पाये, अपना घोंसला बनाने के लिये । कमरे में प्रवेश करने का उपाय किस से पूछे ? स्वयं अपने अन्दर से ही उपाय निकालता है, अत: प्रयत्न करता है। कभी उस द्वार पर जाता है और बन्द पाकर वापस लौट आता है। कुछ देर पश्चात् उस खिड़की के निकट जाता है, वहां सरिए लगे पाता है । सरियों के बीच में गर्दन घुसाकर प्रयत्न करता है घुसने का परन्तु सरियों में अन्तराल कम होने के कारण उसका शरीर निकल नहीं पाता, उनके बीच में से। फिर लौट आता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy