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________________ २. धर्म का प्रयोजन ४. इच्छा -गर्त दूसरी दिशा में जाता है, वहाँ भी वैसा ही प्रयत्न । फिर तीसरी में और फिर चौथी दिशा में, कहीं से मार्ग न मिला। सामनेवाले मुंडेर पर बैठकर सोच रहा है वह, अब भी उसी का उपाय । निराश नहीं हुआ है वह । हैं ! यह क्या है, ऊपर छतके निकट ? चलकर देखू तो सही? एक रोशनदान । झुककर देखता है, अन्दर की ओर । कुछ भय के कारण तो नहीं हैं वहां? नहीं, नहीं कुछ नहीं है । रोशनदान में घुस जाता है, कमरे की कार्नस पर बैठकर प्रतीक्षा करता है, कुछ देर कमरे के स्वामी के आने की। स्वामी आता है, तो देखता है गौर से उसकी मुखाकृति को । क्रूर तो नहीं है? नहीं, भला आदमी है। और फिर जाता है और आता है, बे रोकटोक, मानो उसके लिए ही बनाया था यह द्वार । इसी प्रकार एक चींटी भी पहुँच जाती है अपने खाद्य पदार्थ पर, और थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर मार्ग निकाल ही लेती है। विश्लेषण कीजिए इन छोटे से जन्तुओं की इस प्रक्रिया का । धैर्य और साहस के साथ बार-बार प्रयत्न करना। असफल रहने पर भी एकदम निराश न हो जाना । एक द्वार न दीखे तो दूसरी दिशा में जाकर ढूँढ़ना या दूसरे द्वार पर प्रयल करना और अन्त में सफल हो जाना । यह है, क्रम किसी अभीष्ट विषय के उपाय ढूँढ़ने का। इसे वैज्ञानिक जन कहते हैं 'Trial & Error Theory', 'सफल न होने पर प्रयत्न की दिशा घुमा देने का सिद्धान्त ।' आप स्वयं भी तो इस सिद्धान्त का प्रयोग कर रहे हैं, अपने जीवन में । कोई रोग हो जानेपर, आते हो वैद्यराज के पास, औषधि लेते हो । तीन चार दिन खाकर देखने के पश्चात् कोई लाभ होता प्रतीत नहीं होता, तो वैद्यजी से कहते हो, औषधि बदल देने के लिये। उसमें भी यदि काम न चले तो पुन: वही क्रम । और अन्त में तीन बार औषधि बदली जाने पर, मिल ही जाती है, कोई अनुकूल औषधि । इस प्रक्रिया का विश्लेषण करने पर भी उपरोक्त ही फल निकलेगा। बस यही है वह सिद्धान्त, जो यहाँ शान्ति-प्राप्ति के उपाय के सम्बन्ध में भी लागू करना है। किसी अनुभूत व दृष्ट विषय का विश्लेषण करके एक सिद्धान्त बनाना, तथा उसी जाति के किसी अनुभूत व अदृष्ट विषयपर लागू करके अभीष्ट की सिद्धि कर लेना ही तो वैज्ञानिक मार्ग है, कोई नवीन खोज करने का। शान्ति की नवीन खोज करनी है तो उपरोक्त सिद्धान्त को लागू कीजिये । एक प्रयत्न कीजिये, यदि सफल न हो तो उस प्रयत्न की दिशा घुमाकर देखिये, फिर भी सफलता न मिले तो पुन: कोई और प्रयोग कीजिये, और प्रयोगों को बराबर बदलते जाइये, जब तक कि सफल न हो जायें। ३. सत्य पुरुषार्थ-अब प्रश्न होता है कि क्या आज तक प्रयल नहीं किया? नहीं ऐसी तो बात नहीं है । प्रयत्न तो किया और बराबर करता आ रहा है । प्रयत्न करने में कमी नहीं है। धन उपार्जन करने में, जीवन की आवश्यक वस्तुएँ जुटाने में, उनकी रक्षा करने में तथा उनको भोगने में अवश्य तू पुरुषार्थ कर रहा है, और खूब कर रहा है । फिर कमी कहाँ है जो आज तक असफल रहा है, उसकी प्राप्ति में? कमी है प्रयोग को बदल कर न देखने की। प्रयत्न तो अवश्य करता आ रहा है, पर अव्वल तो आज तक कभी तुझे यह विचारने का अवसर ही नहीं मिला, नहीं मिल रही है, और यदि कुछ प्रतीति भी हुई, तो प्रयोग बदलकर न देखा । वही पुराना प्रयोग चल रहा है, जो पहले चलता था-धन कमाने का, भोगों की उपलब्धि व रक्षा का तथा उन्हें भोगने का। कभी विचारा है यह कि अधिक से अधिक भोगों को प्राप्त करके भी यह ध्वनि शान्त नहीं हो रही है तो अवश्यमेव मेरी धारणा में, मेरे विश्वास में कहीं भूल है? धन या भोग शान्ति की प्राप्ति के उपाय ही नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो अवश्य ही मैं शान्त हो गया होता। आवाज का न दबना ही यह बता रहा है कि मेरा उपाय झूठा है । वास्तव में उपाय कुछ और है, जिसे मैं नहीं जानता। अत: या तो किसी जानकार से पूछकर या स्वयं पुरुषार्थ की दिशा घुमाकर देखू तो सही । इस उपरोक्त प्रयोग को यदि अपनाता, तो अवश्य आज तक वह मार्ग पा लिया होता। ___ अब सुनने पर तथा अपनी धारणा बदल जाने के कारण कुछ इच्छा भी प्रगट हुई हो यदि प्रयत्न बदलने की, तो उससे पहले तुझको यह बात जान लेनी आवश्यक है, कि किस चीज का आविष्कार करने जा रहा है तू, क्योंकि बिना किसी लक्ष्य के किस और लगायेगा अपने पुरुषार्थ को? केवल शान्ति व सुख कह देने से काम नहीं चलता। उस शान्ति या सुख की पहचान भी होनी चाहिए, ताकि आगे जाकर भूलवश पहले की भाँति उस दुःख या अशान्ति को सुख या शान्ति न मान बैठे, और तृप्तवत् हुआ चलता जाये उसी दिशा में, बिल्कुल असफल व असन्तुष्ट । ४. इच्छा-गर्त शान्ति की पहिचान भी अनुभव के आधार पर करनी है, किसी की गवाही लेकर नहीं और बड़ी सरल है वह । केवल अन्तरंग के परिणामों का या उस अन्तर्ध्वनि का विश्लेषण करके देखना है । असन्तोष में डूबी लता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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