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५. संसार-वृक्ष
२. धर्म का प्रयोजन आज की ध्वनि प्रतिक्षण माँग रही है, तुझसे, 'कुछ और' । 'कुछ और चाहिये अभी तृप्त नहीं हुआ, अभी कुछ और भी चाहिये', बराबर ऐसी ध्वनि सुनने में आ रही है। वास्तव में इस ध्वनि का नाम ही तो है अभिलाषा, इच्छा या व्याकुलता । क्या कुछ सन्देह है इसमें भी? यदि है तो देख, आज तुझे इच्छा है अपनी युवती कन्या का जल्दी से जल्दी विवाह करने की, पर योग्य वर न मिलने के कारण कर नहीं पा रहा है । तेरी इच्छा पूरी नहीं हो रही है । बस यही तो है तेरे अन्दर की व्याकुलता, व्यग्रता, अशान्ति या दुःख।
पुरुषार्थ करके अधिकाधिक कमा डाला, पर उस ध्वनि की ओर उपयोग गया तो आश्चर्य हुआ यह देखकर कि ज्यों-ज्यों धन बढ़ा वह 'कुछ और' की ध्वनि और भी बलवान होती गई। ज्यों-ज्यों भोग भोगे, भोगों के प्रति की अभिलाषा और अधिक बढ़ती गई। क्या कारण है इसका? जितनी कुछ भी धन-राशि की प्राप्ति हुई थी, उतना तो इसको कम होना चाहिए था या बढ़ना? बस सिद्धान्त निकल गया कि इच्छाओं का स्वभाव ही ऐसा है, कि ज्यों-ज्यों मांग पूरी करें त्यों-त्यों दबने की बजाय और अधिक बढ़े । इच्छा के बढ़ने में भी सम्भवत: हर्ज न होता, यदि यह सम्भव होता कि एकदिन जाकर इसका अन्त आ जायेगा, क्योंकि इच्छा का अन्त आ जाने पर भी मैं पुरुषार्थ करता रहूंगा और
अधिक धन कमाने का, और एक दिन इतना संचय कर लूंगा कि उसकी पूर्ति हो जाये । परन्तु विचारने पर यह स्पष्ट प्रतीति में आता है कि इच्छा का कभी अन्त नहीं होगा। इच्छा असीम है और इसके सामने पड़ी हुई तीन लोक की सम्पत्ति सीमित । सम्भवत: इतनी मात्र कि इच्छा के खड्डे में पड़ी हुई इतनी भी दिखाई न दे, जैसा कि कोई परमाणु। इस पर भी इसको बंटवाने वाली इतनी बड़ी जीवराशि? क्योंकि सब ही को तो इच्छा है उसकी, तेरी भाँति । बता क्या सम्भव है ऐसी दशा में इस इच्छा की पूर्ति? इसका अनन्तवां अंश भी तो सम्भवत: पूर्ण न हो सके? फिर कैसे मिलेगी तुझे शान्ति, धन प्राप्ति के पुरुषार्थ से ? बस बन गया सिद्धान्त । धन व भोगों की प्राप्ति का नाम सुख व शान्ति नहीं, बल्कि उनका अभाव शान्ति है, और इस लिए धनोपार्जन या भोगों सम्बन्धी पुरुषार्थ, इस दिशा का पुरुषार्थ नहीं है।
५. संसार-वृक्ष-देख तेरी वर्तमान दशा का एक सुन्दर चित्र दर्शाता हूं। एक व्यापारी जहाज में माल भरकर विदेश को चला। अनेकों आशायें थी उसके हृदय में । पर उसे क्या खबर थी कि अदृष्ट उसके लिये क्या लिये बैठा है। दूर क्षितिज में से साँय-साँय की भंयकर ध्वनि प्रगट हुई, जो बराबर बढ़ती हुई उसकी ओर आने लगी। घबरा गया वह । हैं ! यह क्या? तूफान सरपर आ गया। आन्धी का वेग मानों सागर को अपने स्थान से उठाकर अन्यत्र ले जाने की होड़ लगाकर आया है। सागर ने अपने अभिमान पर इतना बड़ा आघात कभी न देखा था। वह एकदम गर्ज उठा, फुकार मारने लगा और उछल-उछलकर वायुमंडल को ताड़ने लगा।
वायु व सागर का यह युद्ध कितना भयंकर था । दिशायें भंयकर गर्जनाओं से भर गई। दोनों नये-नये हथिायर लेकर सामने आ रहे थे। सागर के भयंकर थपेड़ों से आकाश का साहस टूट गया । वह एक भयंकर चीत्कार के साथ सागर के पैरों में गिर गया। घडडडड़ । ओह ! यह क्या आफत आई ? आकश फट गया और उसके भीतर से क्षण भर को एक महान प्रकाश की रेखा प्रकट हुई । रात्रि के इस गहन अन्धकार में भी इस वज्रपात के अद्वितीय प्रकाश में सागर का क्षोभ तथा इस युद्ध का प्रकोप स्पष्ट दिखाई दे रहा था । व्यापारी की नब्ज ऊपर चढ़ गई, मानो वह निष्प्राण हो चुका है।
इतने ही पर बस क्यों हो? आकाश की इस पराजय को मेघराज सहन न कर सका। महा-काल की भाँति काली राक्षस सेना गर्जकर आगे बढ़ी और एक बार पुन: घोर अन्धकार में सब कुछ विलीन हो गया। व्यापारी अचेत होकर गिर पड़ा। सागर उछला, गड़गड़ाया, मेघराज ने जलवाणों की घोर वर्षा की । मूसलाधार पानी पड़ने लगा। जहाज में जल भर गया । व्यापारी अब भी अचेत था। दो भयंकर राक्षसों के युद्ध में बेचारे व्यापारी की कौन सुने? सागर की एक विकराल तरंग-ओह ! यह क्या? पुन: वज्रपात हुआ और उसके प्रकाश में. ..? जहाज जोर से ऊपर को उछला और नीचे गिरकर जल में विलप्त हो गया। सागर की गोद में समा गया। उसके अगोंपांग इधर उ गये । हाय, बेचारा व्यापारी, कौन जाने उसकी क्या दशा हुई।
प्रभात हुआ। एक तखते पर पड़ा सागर में बहता हुआ कोई अचेत व्यक्ति भाग्यवश किनारे पर आ लगा । सूर्य की किरणों ने उसके शरीर में कुछ स्फूर्ति उत्पन्न की। उसने आँखें खोली । मैं कौन हूं? मैं कहाँ हूँ? यह कौन देश है ? किसने मुझे यहाँ पहुँचाया है ? मैं कहाँ से आ रहा हूं? क्या काम करने के लिए घर से निकला था? मेरे पास क्या
है ? कैसे निर्वाह करूँ? सब कुछ भूल चुका है अब वह । Jain Education International
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