SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ २. धर्म का प्रयोजन ५. संसार-वृक्ष उसे नवजीवन मिला है, यह भी पता नहीं है उसे। किसकी सहायता पाऊँ, कोई दिखाई नहीं देता। गर्दन लटकाये चल दिया जिस और मुंह उठा । एक भंयकर चीत्कार । अरे ! यह क्या ? उसकी मानसिक स्तब्धता भंग हो गयी। पीछे मुड़कर देखा। मेघों से भी काला, जंगम-पर्वत तुल्य, विकराल गजराज सूंड़ ऊपर उठाये, चीख मारता हुआ, उसकी ओर दौड़ा। प्रभु ! बचाओ । अरे पथिक ! कितना अच्छा होता यदि इसी प्रभु को अपने अच्छे दिनों में भी याद कर लिया होता । अब क्या बनता है, यहां कोई भी तेरा सहारा नहीं । दौड़ने के अतिरिक्त शरण नहीं थी। पथिक दौड़ा, जितनी जोर से उससे दौड़ा गया। हाथी सरपर आ गया और धैर्य जाता रहा उसका । अब जीवन असम्भव है । “नहीं पथिक तूने एकबार जिह्वासे प्रभु का पवित्र नाम लिया है, वह निरर्थक न जायेगा, तेरी रक्षा अवश्य होगी", आकाशवाणी हुई । आश्चर्य से आँख उठाकर देखा, कुछ सन्तोष हुआ, सामने एक बड़ा वटवृक्ष खड़ा था। एक बार पुन: साहस बटोरकर पथिक दौड़ा और वृक्ष के नीचे की ओर लटकती दो उपशाखाओं को पकड़कर वह ऊपर चढ़ गया। हाथी का प्रकोप और भी बढ़ गया, यह उसकी मानहानि है । इस वृक्ष ने उसके शिकार को शरण दी है। अत: वह भी अब रह न पायेगा । अपनी लम्बी सूंड से वृक्ष को वह जोर से हिलाने लगा। पथिक का रक्त सूख गया । अब मुझे बचानेवाला कोई नहीं। नाथ ! क्या मुझे जाना ही होगा, बिना कुछ देखे, बिना कुछ चखे? “नहीं, प्रभु का नाम बेकार नहीं जाता। ऊपर दृष्टि उठा कर देख", आकाशवाणी ने पुन: आशा का संचार किया। ऊपर की ओर देखा। मधु का एक बड़ा छत्ता, जिसमें से बुन्द-बून्द करके झर रहा था उसका मद । ___ आश्चर्य से मुंह खुला रह गया। यह क्या? और अकस्मात् ही-आ हा हा, कितना मधुर है यह? एक मधुबिन्दु उसके खुले मुंह में गिर पड़ा। वह चाट रहा था उसे और कृतकृत्य मान रहा था अपने को । एक बूंद और । मुंह खोला, और पुन: वही स्वाद । एक बूंद और... । और इसी प्रकार मधुबिन्दु के इस मधुर स्वाद में खो गया वह, मानो उसका जीवन बहुत सुखी बन गया है। अब उसे और कुछ नहीं चाहिए, एक मधुबिन्दु । भूल गया वह अब प्रभु के नाम को । उसे याद करने से अब लाभ भी क्या है ? देख कोई भी मधुबिन्दु व्यर्थ पृथ्वी पर न पड़ने पावे। उसके सामने मधुबिन्दु के अतिरिक्त और कुछ न था । भूल चुका था वह यह कि नीचे खड़ा वह विकराल हाथी अब भी वृक्ष की जड़ में सूंड से पानी दे देकर उसे जोर-जोर से हिला रहा है। क्या करता उसे याद करके, मधुबिन्दु जो मिल गया है उसे, मानों उसके सारे भय टल चुके हैं। वह मग्न है मधुबिन्दु की मस्ती में। _वह भले न देखे, पर प्रभु तो देख रहे हैं। अरेरे ! कितनी दयनीय है इस पथिक की दशा । नीचे हाथी वृक्षको समूल उखाड़ने पर तत्पर है और वह देखो दो चूहे बैठे उस डाल को धीरे-धीरे कुतर रहे हैं जिसपर की वह लटका हुआ है। उसके नीचे उस बड़े अन्धकूप में, मुँह फाड़े विकराल दाढ़ों के बीच लम्बी लम्बी भयंकर जिह्वा लपलपा रही है जिनकी । लाल-लाल नेत्रों से, ऊपर की ओर देखते हुए चार भयंकर अजगर मानो इसी बात की प्रतीक्षा में हैं कि कब डाल कटे और उनको एक ग्रास खाने को मिले। उन बेचारों का भी क्या दोष, उनके पास पेट भरने का एक यही तो साधन है । पथभ्रष्ट अनेकों भूले भटके पथिक आते हैं, और इस मधुबिन्दु के स्वाद में खोकर अन्त में उन अजगरों के ग्रास बन जाते हैं । सदा से ऐसा होता आ रहा है, तब आज भी ऐसा ही क्यों न होगा? गड़ गड़ गड़, वृक्ष हिला । मधु-मक्षिकाओं का सन्तुलन भंग हो गया। भिनभिनाती हुई, भन्नाती हुई वे उड़ीं । इस नवागन्तुकने ही हमारी शान्ति में भंग डाला है । चिपट गई वे सब उसको, कुछ सर पर , कुछ कमर पर, कुछ हाथों में, कुछ पावों में । सहसा घबरा उठा वह ....यह क्या? उनके तीखे डंको की पीड़ा से व्याकुल होकर एक चीख निकल पड़ी उसके मुंह से, 'प्रभु ! बचाओ मुझे' । पुन: वही मधुबिन्दु । जिस प्रकार रोते हुए शिशु के मुख में मधुभरा रबर का निपल देकर माता उसे सला देती है. और वह शिश भी इस भ्रम से कि मझे स्वाद आ रहा है. सन्तष्ट होकर सो जाता है: उसी प्रकार पुन: खो गया वह उस मधुबिन्दु में, और भूल गया उन डंकों की पीड़ा को। पथिक प्रसन्न था, पर सामने बैठे परम करुणाधारी, शान्तिमूर्ति जगतहितकारी, प्रकृति की गोद में रहने वाले, निर्भय गुरुदेव मन ही मन उसकी इस दयनीय दशापर आँसू बहा रहे थे। आखिर उनसे रहा न गया। उठकर निकल आये । “भो पथिक ! एक बार नीचे देख, यह हाथी जिससे डरकर तू यहाँ आया है, अब भी यहाँ ही खड़ा इस वृक्ष को उखाड़ रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy