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१. अध्ययन पद्धति
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७. वैज्ञानिक बन
लड़ने न लगे तो, या तो यहाँ से उठकर चले जाओगे और या बैठकर चुपचाप चर्चा करने लगोगे, या ऊंघने लगोगे और या अन्दर ही अन्दर कुछ कुढ़ने लगोगे, “सुनने आये थे जिनवाणी, और सुनने बैठ गये अन्य मत की कथनी ।" बस इसी भाव का नाम है साम्प्रदायिकता ।
इस भाव का आधार है गुरु का पक्षपात । अर्थात् जिनवाणी की बात ठीक है, क्योंकि मेरे गुरुने कही है, और यह झूठ है क्योंकि अन्य के गुरु ने कही है। यदि जिनवाणी की बात को भी युक्ति व तर्क द्वारा स्वीकार करने का अभ्यास किया होता, तो यहां भी उसी अभ्यास का प्रयोग करते । यदि कुछ बात ठीक बैठ जाती तो स्वीकार कर लेते, नहीं तो नहीं। इसमें क्षोभ की क्या बात थी ? बाजार में जायें, अनेक दुकानदार आपको अपनी ओर बुलायें, आप सब
ही तो सुन लेते हैं। किसी से क्षोभ करने का तो प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। किसी से सौदा पटा तो ले लिया, नहीं पटा तो आगे चल दिये। इसी प्रकार यहाँ क्यों नहीं होता ?
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बस इस अदेखस के भाव को टालने की बात कही जा रही है। मार्ग के प्रति जो तेरी श्रद्धा है, उसका निषेध नहीं किया जा रहा है । युक्ति व तर्क पूर्वक समझने का अभ्यास हो तो सब बातों में से तथ्य निकाला जा सकता है। भूल भी कदापि नहीं हो सकती । यदि श्रद्धान सच्चा है तो उसमें बाधा भी नहीं आ सकती, सुनने से डर क्यों लगता है ? परन्तु 'क्योंकि मेरे गुरु ने कहा है इसलिये सत्य है' तेरे अपने कल्याणार्थ इस बुद्धि का निषेध किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का यह मार्ग नहीं है । वे अपने गुरु की बात को भी बिना युक्ति के स्वीकार नहीं करते। यदि अनुसन्धान या अनुभव में कोई अन्तर पड़ता प्रतीत होता है, तो युक्ति द्वारा ग्रहण की हुई को भी नहीं मानते हैं। बस तत्त्व की यथार्थता को पकड़ना है तो इसी प्रकार करना होगा। गुरु के पक्षपात से सत्य का निर्णय ही न हो सकेगा, अनुभव तो दूर की बात है । अपनी दही को मीठी बताने का नाम सच्ची श्रद्धा नहीं है । वास्तव में मीठी हो तथा उसके मिठास को चखा हो, तब उसे मीठी कहना सच्ची श्रद्धा है I
देख एक दृष्टान्त देता हूँ । एक जौहरी था, उसकी आयु पूर्ण हो गई । पुत्र था तो, पर निखट्टू । पिताजी की मृत्यु के पश्चात् अलमारी खोली, और कुछ जेवर निकालकर ले गया अपने चचा के पास । 'चाचाजी, इन्हें बिकवा दीजिये ।' चाचा भी जौहरी था, सब कुछ समझ गया। कहने लगा बेटा ! आज ने बेचो इन्हें, बाजार में ग्राहक नहीं हैं, बहुत कम दाम उठेंगे । जाओ जहाँ से लाये हो वहीं रख आओ इन्हें और मेरी दुकान पर आकर बैठा करो, घर का खर्चा दुकान से उठा लिया करो । वैसा ही किया, और कुछ महीनों के पश्चात् पूरा जौहरी बन गया वह । अब चचाने कहा, 'कि बेटा ! जाओ आज ले आओ वे जेवर । आज ग्राहक हैं बाजार में ।' बेटा तुरन्त गया, अलमारी खोली और जेवर के डब्बे उठाने लगा । पर हैं ! यह क्या ? एक डब्बा उठाया, रख दिया वापिस ; दूसरा उठाया, रख दिया वापिस ; और इसी तरह तीसरा, चौथा आदि सब डब्बे ज्यों के त्यों अलमारी में रख दिये, अलमारी बन्द की और चला आया खाली हाथ दुकान पर, निराशा में गर्दन लटकाये, विकल्प सागर में डूबा, वह युवक। “जेवर नहीं लाये बेटा ?” चचाने प्रश्न किया। और एक धीमी सी, लज्जित सी आवाज निकली युवक के कण्ठ से “क्षमा करो चाचा, भूला था, भ्रम था । वह सब तो काँच है, मैं हीरे समझ बैठा था उन्हें अज्ञानवश । आज आपसे ज्ञान पाकर आँखें खुल गई हैं मेरी । "
बस इसी प्रकार तेरे भ्रम की, पक्षपात की सत्ता उसी समय तक है, जब तक कि धैर्यपूर्वक कुछ महीनों तक बराबर उस विशाल तत्त्व को सुन व समझ नहीं लेता । उस सम्पूर्ण को यथार्थ रीत्या समझ लेने के पश्चात् तू स्वयं लज्जित हो जायेगा, हंसेगा अपने ऊपर ।
७. वैज्ञानिक बन—- जैसा कि आगे स्पष्ट हो जायेगा, धर्म का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं वैज्ञानिक है । अन्तर केवल इतना है, कि लोक में प्रचलित विज्ञान भौतिक विज्ञान है और यह है आध्यात्मिक विज्ञान। धर्म की खोज तुझे एक वैज्ञानिक बनकर करनी होगी, साम्प्रदायिक बनकर नहीं। स्वानुभव के आधार पर करनी होगी, गुरुओं के आश्रय पर नहीं । अपने ही अन्दर से तत्सम्बन्धी 'क्या' और 'क्यों' उत्पन्न करके तथा अपने ही अन्दर से उसका उत्तर लेकर करनी होगी, किसी से पूछकर नहीं। गुरु जो संकेत दे रहे हैं, उनको जीवन पर लागू करके करनी होगी, केवल शब्दों में नहीं । तुझे एक फिलासफर बनकर चलना होगा, कूपमण्डूक बनकर नहीं । स्वतन्त्र वातावरण में जाकर विचारना होगा, साम्प्रदायिक बन्धनों में नहीं ।
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