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________________ ६. महावित पक्षपात १. अध्ययन पद्धति इस प्रकार निर्माण हो जाता है सम्प्रदायों का, जो वक्ता की मृत्यु के पश्चात् भी परस्पर लड़ने में ही अपना गौरव समझते हैं, और हित का मार्ग न स्वयं खोज सकते हैं और न दूसरे को दर्शा सकते हैं। मजे की बात यह है कि यह सब लड़ाई होती है धर्म के नाम पर। यह दुष्ट पक्षपात कई जाति का होता है। उनमें से मुख्य दो जाति हैं—एक अभिप्राय का पक्षपात तथा दूसरा शब्द का पक्षपात । अभिप्राय का पक्षपात तो स्वयं वक्ता तथा उसके श्रोता दोनों के लिए घातक है और शब्द का पक्षपात केवल श्रोताओं के लिये । क्योंकि इस पक्षपात में वक्ता का अपना अभिप्राय तो ठीक रहता है, पर बिना शब्दों में प्रकट हुए श्रोता बेचारा कैसे जान सकेगा उसके अभिप्राय को? अत: वह अभिप्राय में भी पक्षपात धारण करके, स्वयं वक्ता के अन्दर में पड़े हुए अनुक्त अभिप्राय का भी विरोध करने लगता है। यदि विषय को पूर्ण सुन व समझ लिया जाये तो कोई भी विरोध अभिप्राय शेष न रह जाने के कारण पक्षपात को अवकाश नहीं मिल सकता। इस पक्षपात का दूसरा कारण है श्रोता की अयोग्यता, उसकी स्मरण शक्ति की हीनता, जिसके कारण कि सारी बात सुन लेने पर भी बीच-बीच में कुछ-कुछ बात तो याद रह जाती है उसे और कुछ-कुछ भूल जाता है वह । और इस प्रकार एक अखण्डित धारावाही अभिप्राय खण्डित हो जाता है, उसके ज्ञान में । फल वही होता है जो कि अक्रम रूप से सुनने का है । पक्षपात का तीसरा कारण है व्यक्ति विशेष के कुल में परम्परा से चली आई कोई मान्यता या अभिप्राय । इस कारण का तो कोई प्रतिकार ही नहीं है, भाग्य से ही कदाचित् प्रतिकार बन जाये। तथा अन्य भी अनेकों कारण हैं, जिनका विशेष विस्तार करना यहाँ ठीक सा नहीं लगता। हमें तो यह जानना है, कि निज-कल्याणार्थ धर्म का स्वरूप कैसे समझें? धर्म का स्वरूप जानने से पहले इस पक्षपात को तिलांजलि देकर यह निश्चय करना चाहिये, कि धर्म सम्प्रदाय की चारदीवारी से दूर किसी स्वतन्त्र दृष्टि में उत्पन्न होता है, स्वतन्त्र वातावरण में पलता है व स्वतन्त्र वातावरण में ही फल देता है । यद्यपि सम्प्रदायों को आज धर्म के नाम से पुकारा जाता है, परन्तु वास्तव में यह भ्रम है, पक्षपात का विषैला फल है । सम्प्रदाय कोई भी क्यों न हो धर्म नहीं हो सकता । सम्प्रदाय पक्षपात को कहते हैं, और धर्म स्वतन्त्र अभिप्राय को कहते हैं जिसे कोई भी मनुष्य, किसी भी सम्प्रदाय में उत्पन हुआ, छोटा या बड़ा, गरीब या अमीर, यहाँ तक कि तिर्यंच भी, सब धारण कर सकते हैं, जबकि सम्प्रदाय इसमें अपनी टांग अड़ाकर, किसी को धर्म पालन का अधिकार देता है और किसी को नहीं देता। आज के जैन-सम्प्रदाय का धर्म भी वास्तव में धर्म नहीं हैं, सम्प्रदाय है, एक पक्षपात है । इसके आधीन क्रियाओं में ही कूपमण्डूक बनकर वर्तने में कोई हित नजर नहीं आता। पहले कभी नहीं सनी होगी ऐसी बात. और इसलिये कछ क्षोभ भी सम्भवतः आ गया हो। धारणा पर ऐसी सीधी व कडी चोट कैसे सहन की जा सकती है? यह धर्म तो सर्वोच्च धर्म है न जगत का? परन्त क्षोभ की बात नहीं है भाई । शान्त हो । तेरा यह क्षोभ ही तो वह पक्षपात है, साम्प्रदायिक पक्षपात जिसका निषेध कराया जा रहा है । इस क्षोभ से ही तो परीक्षा हो रही है तेरे अभिप्राय की । क्षोभ को दबा, आगे चलकर स्वयं समझ जायेगा, कि कितना सार था तेरे इस क्षोभ में । अब जरा विचार कर, कि क्या धर्म भी कहीं ऊँचा या नीचा होता है ? बड़ा या छोटा होता है ? अच्छा या बुरा होता है ? धर्म तो धर्म होता है उसका क्या ऊँचा-नीचापना? उसका क्या जैन व अजैनपना? क्या वैदिकपना व मुसलमानपना? धर्म तो धर्म है जिसने जीवन में उतारा उसे हितकारक ही है, जैसा कि आगे के प्रकरणों से स्पष्ट हो जायेगा । उस हित को जानने के लिये कुछ शान्तचित्त होकर सुन । पक्षपात को भूल जा थोड़ी देर के लिये। तेरे क्षोभ के निवारणार्थ यहाँ इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश डाल देना उचित समझता हूँ। किसी मार्ग-विशेष पर श्रद्धा न करने का नाम सम्प्रदाय नहीं है सम्प्रदाय तो अन्तरंग के किसी विशेष अभिप्राय का नाम है, जिसके कारण कि दूसरों की धारणाओं के प्रति कुछ अनदेखा सा भाव प्रकट होने लगता है। इस अभिप्राय को परीक्षा करके पकड़ा जा सकता है, शब्दों में बताया नहीं जा सकता। कल्पना कीजिये कि आज मैं यहाँ इस गद्दीपर कोई ब्रह्मद्वैतवाद का शास्त्र ले बैलूं और उसके आधारपर आपको कुछ सुनाना चाहूं, तो बताइये आपकी अन्तरवृत्ति क्या होगी? क्या आप उसे भी इसी प्रकार शान्ति व रुचि पूर्वक सुनना चाहेंगे, जिस प्रकार कि इसे सुन रहे हैं ? सम्भवत: नहीं। यदि मुझसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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