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________________ १. अध्ययन पद्धति ६. महाविघ्न पक्षपात क्योंकि इस पक्षपात के कारण अव्वल तो अपनी रुचि या अभिप्राय से अन्य कोई बात उसे रुचती ही नहीं और इसलिए ज्ञानी की बात सुनने का प्रयत्न ही नहीं करता वह । और यदि किसी की प्रेरणा से सुनने भी चला जाये, तो समझने की दृष्टि की बजाय सुनता है वाद-विवाद की दृष्टि से, शास्त्रार्थ की दृष्टि से, दोष चुनने की दृष्टि से। अपनी रुचि के विपरीत कोई बात आई नहीं कि पड़ गया उस बेचारे के पीछे, हाथ धोकर, तथा अपने अभिप्राय के पोषक कुछ प्रमाण उस ही के वक्तव्य में से छांटकर, पूर्वापर मेल बैठाने का स्वयं प्रयत्न न करता हुआ, बजाय स्वयं समझने के समझाने लगा वक्ता को। “वहाँ देखो तुमने या तुम्हारे गुरु ने ऐसी बात कही है या लिखी है, और यहाँ उससे उल्टी बात कह रहे हो?" और प्रचार करने लगता है लोक में इस अपने पक्षका, तथा विरोध का । फल निकलता है तीव्र द्वेष । श्रोता का दूसरा दोष है धैर्य-हीनता । चाहता है कि तुरन्त ही कोई सब कुछ बता दे । एक राजा को एकबार कुछ हठ उपजी। कुछ जौहरियों को दरबार में बुलाकर उनसे बोला कि मुझे रत्ल की परीक्षा करना सिखा दीजिये, नहीं तो मृत्यु का दण्ड भोगिये । जौहरियों के पांव तले की धरती खिसक गई। असमंजस में पड़े सोचते थे कि एक वृद्ध जौहरी आगे बढ़ा । बोला कि “मैं सिखाऊँगा, पर एक शर्त पर । वचन दो तो कहूँ ।” हां हां तैयार हूँ, मांगो क्या मांगते हो? जाओ कोशाध्यक्ष ! दे दो सेठ साहब को लाख करोड़ जो भी चाहिये।" वृद्ध बोला, “कि राजन्? लाख करोड़ नहीं चाहिए बल्कि जिज्ञासा है राजनीति सीखने की और वह भी अभी, इसी समय । शर्त पूरी कर दीजिये और रत्न-परीक्षा की विद्या ले लीजिये।" "परन्तु यह कैसे सम्भव है" राजा बोला, “राजनीति इतनी से देर में थोड़े ही सिखाई जा सकती है? वर्षों हमारे मंत्री के पास रहना पड़ेगा।" "बस तो रत्न परीक्षा भी इतनी जल्दी थोड़े ही बताई जा सकती है ? वर्षों रहना पड़ेगा दुकान पर ।" और राजा को अकल आ गई। इसी प्रकार धर्म सम्बन्धी बात भी कोई थोड़ी देर में सुनना या सीखना चाहे तो यह बात असम्भव है । वर्षों रहना पड़ेगा ज्ञानी के संग में, अथवा वर्षों सुनना पड़ेगा उसके विवेचन को । जब स्थूल, प्रत्यक्ष, इन्द्रिय गोचर, लौकिक बातों में भी यह नियम लागू होता है, तो सूक्ष्म, परोक्ष, इन्द्रिय-अगोचर, अलौकिक बात में क्यों लागू न होगा? इसका सीखना तो और भी कठिन है । अत: भो जिज्ञासु ! यदि धर्म का प्रयोजन व उसकी महिमा का ज्ञान करना है तो धैर्य पर्वक वर्षों तक सनना होगा, शान्त भाव से सनना होगा, और पक्षपात व अपनी पूर्व की धारणा को दबाकर सुनना होगा। ६. महावित पक्षपात-धर्म के प्रयोजन व महिमा को जानने या सीखने सम्बन्धी बात चलती है, अर्थात् धर्म सम्बन्धी शिक्षण की बात है । वास्तव में यह जो चलता है, इसे प्रवचन न कहकर शिक्षण-क्रम नाम देना अधिक उपयुक्त है। किसी भी बात को सीखने या पढ़ने में क्या-क्या बाधक कारण होते हैं उनकी बात है। पांच कारण बताये गये थे। उनमें से चार की व्याख्या हो चुकी, जिस परसे यह निर्णय कराया गया कि यदि धर्म का स्वरूप जानना है और उससे कछ काम लेना है तो, १-उसके प्रति बहमान व उत्साह उत्पन्न कर, २-निर्णय करके यथार्थ वक्ता से उसे सन ३-अक्रमरूप न सुनकर 'क' से 'ह' तक क्रमपूर्वक सुन,४-धैर्य धारकर बिना चूक प्रतिदिन महीनों तक सुन । अब पांचवें बाधक कारण की बात चलती है। वह है वक्ता व श्रोता का पक्षपात । वास्तव में यह पक्षपात बहुत घातक है। इस मार्ग में साधारणत: यह उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। कारण पहले बताया जा चुका है। पूरा वक्तव्य क्रमपूर्वक न सुनना ही उस पक्षपात का मुख्य कारण है। थोड़ा जानकर 'मैं बहुत कुछ जान गया हूँ' ऐसा अभिमान अल्पज्ञ जीवों में स्वभावत: उन्पन्न हो जाता है, जो आगे जानने की उसे आज्ञा नहीं देता। वह 'जो मैंने जाना सो ठीक है, तथा जो दूसरे ने जाना सो झूट है'। और दूसरा भी 'जो मैंने जाना सो ठीक तथा जो आपने जाना सो झूठ' एक इसी अभिप्राय को धार परस्पर लड़ने लगते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं, वाद-विवाद करते हैं । उस वाद-विवाद को सुनकर कुछ उसकी रुचि के अनुकूल व्यक्ति उसके पक्ष का पोषण करने लगते हैं, तथा दूसरे की रुचि के अनुकूल व्यक्ति दूसरे के पक्ष का । उसके अतिरिक्त कुछ साधारण व भोले व्यक्ति भी, जो उसकी बात को सुनते हैं उसके अनुयायी बन जाते हैं, और जो दूसरे की बात को सुनते हैं वे दूसरे के बिना इस बात को जाने कि इन दोनों में से कौन क्या कह रहा है ? और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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