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५. श्रोता के दोष
१. अध्ययन पद्धति
में इस
दिखाई देती हो जो कि वह मुख से कह रहा हो, अर्थात् जिसका जीवन सरल, शान्त व दयापूर्ण हो, जिसके शब्दों में माधुर्य हो, करुणा हो और सर्व सत्व का हित हो, सभ्यता हो, जिसके वचनों में पक्षपात की बू न आती हो, जो हठी न हो, सम्प्रदाय के आधार पर सत्यता को सिद्ध करने का प्रयत्न न करता हो. वाद विवाद रूप चर्चा करने से डरता हो आपके प्रश्नों को शान्तिपूर्वक सुनने की जिसमें क्षमता हो, तथा धैर्य से व कोमलता से उसे समझाने का प्रयत्न करता हो, आपकी बात सुनकर जिसे क्षोभ न आ जाता हो, जिसके मुख पर मुस्कान खेलती हो, विषय भोगों के प्रति जिसे अन्दर से कुछ उदासी हो, प्राप्त-विषयों के भोगने से भी जो घबराता हो तथा उनका त्याग करने से जिसे सन्तोष होता हो, अपनी प्रशंसा सुनकर कुछ प्रसन्नसा और अपनी निन्दा सुनकर कुछ रुष्टसा हुआ प्रतीत न होता हो, तथा अन्य भी अनेक इसी प्रकार के चिन्ह हैं जिनके द्वारा स्थूल रूप से आप वक्ता की परीक्षा कर सकते हैं।
४. विवेचन के दोष-तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता। अर्थात् यदि कोई अनुभवी ज्ञानी भी मिला और सरल भाषा में समझाना भी चाहा तो भी अभ्यास न होने के कारण या पढ़ाने का ठीक ठीक ढंग न आने के कारण, या पर्याप्त समय न होने के कारण, क्रम पूर्वक विवेचन कर न पाया, क्योंकि उस धर्म का स्वरूप बहुत विस्तृत है, जो थोड़े समय में या थोड़े दिनों में ठीक-ठीक हृदयंगत कराया जाना शक्य नहीं है। भले ही वह स्वयं उसे ठीक समझता हो, पर समझने और समझाने में अन्तर है । समझा एक समय में जा सकता है, और समझाया जा सकता है क्रमपूर्वक काफी लम्बे समय में । समझाने के लिये 'क' से प्रारम्भ करके 'ह' तक क्रमपूर्वक धीरे-धीरे चलना होता है, समझने वाले की पकड़ के अनुसार । यदि जल्दी करेगा तो उसका प्रयास विफल हो जायेगा। क्योंकि अनभ्यस्त श्रोता बेचारा इतनी जल्दी पकड़ने में समर्थ न हो सकेगा। इसलिए इतने झंझट से बचने के लिए तथा श्रोता समझ बात की परवाह किये बिना अधिकतर वक्ता, अपनी रुचि के अनुसार पूरे विस्तार में से बीच-बीच के कुछ विषयों का विवेचन कर जाते हैं, और श्रोताओं के मख से निकली वाह-वाह से तप्त होकर चले जाते हैं। श्रोता के कल्याण की भावना नहीं है उन्हें, है केवल इस 'वाह-वाह' की। क्योंकि इस प्रकार सब कुछ सुन लेनेपर भी, वह तो रह जाता है कोरा का कोरा । उस बेचारे का दोष भी क्या है? कहीं-कहीं के टूटे हुए वाक्यों या प्रकरणों से अभिप्राय का ग्रहण हो भी कैसे सकता है ?
_ और यदि बुद्धि तीव्र है श्रोता की, तो इस अक्रमिक विवेचन को पकड़ तो लेगा पर वह खण्डित पकड़ उसके किसी काम न आ सकेगी। उल्टा उसमें कुछ पक्षपात उत्पन्न कर देगी, उन प्रकरणों का, जिन्हें कि पकड़ पाया है। और वह द्वेषवश काट करने लगेगा उन प्रकरणों का, जिन्हें कि वह या तो सुनने नहीं पाया और यदि सुना भी है तो पूर्वोत्तर मेल न बैठने के कारण, एक दूसरे के सहवर्तीपन को जान नहीं पाया। दोनों को पृथक-पृथक अवसरों पर लागू करने लगा और प्रत्येक अवसर पर दूसरे का मेल न बैठने के कारण काट करने लगा उसकी । इस प्रकार कल्याण की बजाय कर बैठा अकल्याण; हित की बजाय कर बैठा अहित, प्रेम की बजाय कर बैठा द्वेष ।
अथवा यदि सौभाग्यवश कोई अनुभवी वक्ता भी मिला और क्रमपूर्वक विवेचन भी करने लगा, तो श्रोता को बाधा हो गई। अधिक समय तक सुनने की क्षमता न होने के कारण, या परिस्थितिवश प्रतिदिन न सुनने के कारण या अपने किसी पक्षपात के कारण किसी श्रोता ने सन लिया उस सम्पर्ण विवेचन का एक भाग, और किसी ने सन लिया दूसरा भाग। फल क्या हुआ? वही जो कि अक्रमिक विवेचन में बताया गया। अन्तर केवल इतना ही है, कि वहाँ वक्ता में अक्रमिकता थी और यहाँ है श्रोता में । वहाँ वक्ता का दोष था, और यहाँ है श्रोता का। परन्तु फल वही निकला पक्षपात, वाद-विवाद तथा अहित।
५. श्रोता के दोष ऊपर बताये गये दोष के अतिरिक्त श्रोता में और भी कई दोष हैं । जिनके कारण प्रमाणिक व योग्य वक्ता मिलने पर भी वह उसके समझने में असमर्थ रहता है। उन दोषों में से मुख्य है उसका अपना पक्षपात, जो किसी अप्रमाणिक अथवा अयोग्य वक्ता का विवेचन सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है अथवा प्रमाणिक और योग्य वक्ता के विवेचन को अधूरा सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है, अथवा पहले से ही बिना किसी का सिखाया कोई अभिप्राय उसमें पड़ा है । यह पक्षपात वस्तु-स्वरूप जानने के मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है।
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