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४३. उत्तम आकिञ्चन्य
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४. सच्चा त्याग
यदि शान्ति की इच्छा है तो सच्चा त्याग कर, सच्ची गर्जना उत्पन्न कर । “यहाँ किञ्चित् मात्र भी मेरा नहीं, किसको ग्रहण करूँ और किसको छोडूं ? शान्ति ही मेरा स्वभाव है, मेरा धन है, वही मुझे चाहिए, अन्य कुछ मेरा नहीं, वह मुझे चाहिए भी नहीं। अपनी स्वतन्त्रता मेरा अधिकार है, वही मुझे चाहिए, अन्य को परतन्त्र बनाना मेरा अधिकार नहीं, अत: परमाणु मात्र को भी परतन्त्र बनाने की मुझे इच्छा नहीं। अपने में षट्कारकी रूप से मैं कुछ कर सकता हूँ अत: अपने में ही कुछ करना चाहता हूँ, पर में षट्कारकी रूप से कुछ कर नहीं सकता अत: पर में कुछ करना भी नहीं चाहता।" यह है सच्ची गर्जना या सच्चा अभिप्राय, सच्चा आकिञ्चन्य-धर्म।
वास्तव में तो योगी-जनों ने ही इसे जीवन में ढाला है, पर आप भी अपने अभिप्राय को उपरोक्त रीति से बदलकर किञ्चित् उस धर्म के उपासक बन सकते हैं अर्थात् ऐसा अभिप्राय बन जाने के पश्चात् उन-उन वस्तुओं में भले रमणता करो, पर 'यह मेरा अपराध है' ऐसी बात अन्तरंग में स्वाभाविक रूप से आती रहे । बस वही होगा अपका आकिञ्चन्य धर्म।
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ज्यों ही मानस्तम्भ में विराजित समता मूर्ति पर दृष्टि गई, इन्द्रभूति की अन्तर्चेतन जागृत है गई, अभिमान गलित
होकर आकिंचन्य अवस्था को प्राप्त हो गए।
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