SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४. उत्तम ब्रह्मचर्य ( १. ब्रह्मचर्य; २. ब्रह्मचारी; ३. क्रमोन्नत विकास। सच्चिदानन्द ब्रह्म में रमणता करके पूर्ण-परब्रह्म पद को प्राप्त, हे सिद्ध प्रभु ! मुझे ब्रह्मचर्य प्रदान कीजिए । गर्म घी के छीटों से दाह को प्राप्त हुए व्यक्ति की तरह अनादि काल से इन विषय-भोगों की दाह को प्राप्त मैं, आज अत्यन्त सन्तप्त हो आपकी शरण में आया हूँ। मेरा दाह शान्त कीजिए नाथ ! निज शान्ति के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में रमण करता में, आज तक व्यभिचारी बना रहा, अब ब्रह्मचारी बनने की आशा लेकर, पूर्ण ब्रह्म की शरण में आया है। १. ब्रह्मचर्य-आज ब्रह्मचर्य की बात चलती है, लोक में जिसकी बहुत महिमा है । लोगों की दृष्टि में ब्रह्मचारी के लिए इतना ऊँचा स्थान क्यों ? क्या केवल स्त्री मात्र का त्याग कर देने पर इसका इतना ऊँचा स्थान है ? यह तो बात कुछ गले उतरती प्रतीत नहीं होती, क्योंकि स्त्री का त्याग करके अन्य विषयों में खूब, रमण करने वाले, न्याय अन्याय का विवेक न रखने वाले अत्यन्त कषायवान् तथा विलासी जीवों के प्रति बहुमान उत्पन्न होता नहीं देखा जाता है । क्यों ? क्या उन्हें स्त्री का त्याग नहीं है, और यदि है, तो क्या वे ब्रह्मचारी नहीं हैं ? नहीं वास्तव में ब्रह्मचारी नहीं हैं वे क्योंकि ऐसा होता तो स्वत: ही उनके प्रति बहुमान उत्पन्न हुए बिना न रहता। अत: ब्रह्मचारी का लक्षण केवल स्त्री-त्यागी नहीं है, इसका लक्षण उतना ही व्यापक है जितनी की इसकी महिमा। ब्रह्मचर्य के प्रकरण में जहाँ स्त्री के त्याग की बात को लक्ष्य में रखकर कहा गया है वहाँ पुरुष को सम्बोधन किया गया है। उपलक्षण से स्त्रियों को पति अथवा पुरुष के त्याग की बात समझ लेनी चाहिये। ब्रह्म कहते हैं सच्चिदानन्द भगवान आत्मा को। उसमें चरण अर्थात् रमण करना, आचरण करना। अर्थात् निज-शान्ति में स्थिर होने का नाम है ब्रह्मचर्य । शान्ति के घातक जो संकल्प-विकल्प या रागद्वेषादि हैं, उनमें चरण करने का, रति-अरति रूप भाव करने का नाम है अब्रह्म, व्यभिचार, कामभाव, वेद-कषाय । या यों कहिये कि रागद्वेषादि की कारण जो पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी विषय-वासना तथा भोग-सामग्री, उसमें चरण करना, रमण करना सो है व्यभिचार । कल आकिंचन्य धर्म की बात के अन्तर्गत यह बताया गया था कि शान्ति के अतिरिक्त इस लोक में कोई भी पदार्थ मेरा नहीं, किसी को करने या भोगने का मुझे अधिकार नहीं। अत: किसी पदार्थ को इष्टानिष्ट समझकर करने या भोगने का प्रयत्ल करना अपराध है, व्यभिचार है। अत: अंतरंग विकल्पों के अभाव की तथा निज-शान्ति की अपेक्षा ब्रह्म की उपासना कहो या ब्रह्मचर्य, एक ही अर्थ है; और पर पदार्थों में रमणता तथा बाह्य सामग्री, इनके त्याग की अपेक्षा व्रत कहो, त्याग कहो, दम कहो, संयम कहो, इंद्रिय-जय कहो या ब्रह्मचर्य कहो एक ही अर्थ है । इसीलिए ब्रह्मचर्य के शब्द के प्रति लोक में इतना बहुमान है। २. ब्रह्मचारी-लोक में यद्यपि ब्रह्मचर्य की व्याख्या केवल स्त्री-त्याग पर से की जाती है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। यहाँ स्त्री शब्द का अर्थ सम्पूर्ण भोग सामग्री से है, क्योंकि वह 'लक्ष्मी' नाम से पुकारी जाती है। अत: लक्ष्मी में रमणता का नाम व्यभिचार है और लक्ष्मी के त्याग का नाम ब्रह्मचर्य । इसमें दो दृष्टियों से विचार करना चाहिए, एक ग्रहण की दृष्टि से दूसरा त्याग की दृष्टि से । ग्रहण की दृष्टि से निज-स्वभाव में रमणता अर्थात् पर निरपेक्ष ज्ञान में तथा निज शान्ति स्तभाव में आचरण । त्याग की दृष्टि से पर पदार्थ का, पर परिणति का पर के ज्ञान में रमणता का तथा आचरण का त्याग । इस धर्म में यद्यपि सभी कषायों के त्याग की बात है परन्तु वेद-कषाय (काम वासना) तथा पंचेन्द्रिय विषयक भोग ग्री के त्याग की विशेषता है। ब्रह्मचर्य की व्याख्या कर देने के पश्चात यह देखना है कि ब्रह्मचारी कौन है ? क्या केवल मनुष्यणी का सम्पूर्ण त्याग कर देने वाला या लक्ष्मी का संपूर्ण त्याग कर देने वाला? ऐसा नहीं है, ब्रह्मचारी में पड़ा यह 'चारी' शब्द मार्ग का द्योतक है अर्थात् ब्रह्मचारी कहते हैं ब्रह्म के मार्ग में गमन करने वाले को अर्थात् हीनाधिक रूप से लक्ष्मी के त्यागी को । पूर्ण त्यागी वास्तव में 'चारी' नहीं हो सकता, वह तो 'ब्रह्म' ही हो जायेगा। पूर्णता के पश्चात् मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy