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________________ ४४. उत्तम ब्रह्मचर्य २८९ ३. क्रमोन्नत विकास का अन्त हो जाता है फिर मार्गी या चारी नहीं कहा जा सकता। अत: पूर्ण ब्रह्म के लक्ष्य पर पहुँचने के लिए हीनाधिक रूप से लक्ष्मी का त्याग करने वाला अर्थात् त्याग के मार्ग पर चलने वाला ब्रह्मचारी है। __यदि प्रश्न करें कि कितने त्यागी को ब्रह्मचारी कहें ? तो इसके लिए कोई सीमा नहीं बाँधी जा सकती, जिस प्रकार कि मद्य पीने की आदत को छोड़ने के लिए जो प्रयास कर रहा है, उसे कब जाकर मद्य का त्यागी कहें ? वास्तव में पहले दिन ही जबकि उसने केवल एक घूट कम की थी वह त्यागी की कोटि में आ गया था, भले लोग उसके त्याग को न जान पावें । धीरे-धीरे जब मद्यशाला में भी जाने का त्याग कर देगा तब ही लोक जान पायेगा कि वह त्यागी है । परन्तु लोगों की दृष्टि में आ जाना त्याग का माप दण्ड नहीं है, मार्ग के ऊपर पहला पग रखते ही व्यक्ति पथिक बन जाता है । पथ पर आगे-पीछे चलने वाले व्यक्ति भले ही लक्ष्य की निकटता व दूरता के कारण अगले व पिछले कहलायें परन्तु ऐसा कोई नहीं जिसे हम पथिक न कह सकें । पथिक सब हैं भले आगे वाला हो या पीछे वाला । बस इसी प्रकार यहाँ त्याग सम्बन्धी ब्रह्मचर्य के मार्ग में भी लागू कर लेना । जिस दिन त्याग का अभिप्राय किया उस दिन ही वह त्यागी की कोटि में आ गया। ज्यों-ज्यों अधिक त्याग करता जायेगा. त्यों-त्यों आगे बढ़ता जायेगा. अधिकाधिक उत्तम विशेषण को धारण करता जायेगा। जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त इस ब्रह्मचर्य के मार्ग में भी, अन्य प्रकरणों में कथित मार्ग की भाँति क्रम पड़ता है। क्रमानुसार केवल उत्तमता के विशेषणों में ही अन्तर पड़ता है, ब्रह्मचर्यपने में नहीं। प्रथम क्षण में भी ब्रह्मचारी है और अन्तिम क्षण में भी ब्रह्मचारी है, अभिप्राय त्याग का होना चाहिए। सर्वत्र अभिप्राय की मुख्यता है । त्याग के अभिप्राय-रहित किसी कारणवश स्त्री व लक्ष्मी की प्राप्ति न हो सके, उसे ब्रह्मचारी नहीं कह सकते, और थोड़े या अधिक त्याग के अभिप्राय-सहित स्त्री या लक्ष्मी में रमण करता हुआ भी ब्रह्मचारी कहा जा सकता है । स्त्री या लक्ष्मी का पूर्ण त्यागी ही ब्रह्मचारी हो ऐसा नहीं है, अल्पत्यागी भी यथायोग्य रूप से ब्रह्मचारी है। अन्य प्रकरणों की तरह यहाँ भी ब्रह्मचारी की परीक्षा विषयों के त्याग पर से करनी है, विषयों के ग्रहण पर से नहीं । यदि ग्रहण पर से करने लगोगे तो बात गले न उतरेगी। वर्तमान क्रिया को न देखकर जितना त्याग किया है उसको देखना । त्याग का नाम ही ब्रह्मचर्य है, अंशमात्र भी विषयों में रमणता का नाम ब्रह्मचर्य नहीं हो सकता। ग्रहण की ओर से देखें तो मुनि को भी ब्रह्मचारी नहीं कह सकोगे क्योंकि आहार-ग्रहण का नाम ब्रह्मचर्य नहीं, जितना त्याग हुआ है उतना ही ब्रह्मचर्य है । स्त्री त्याग के पश्चात् बाहर में स्पष्ट त्याग दिखाई दे जाने पर लोक में जो ब्रह्मचारी कहा जाता है उसमें भी त्याग की ओर देखकर ही निर्णय किया गया है। देखो एक भील ने केवल कौवे का मॉस स खाना छोड दिया और अन्य जन्तओं का माँस खाता रहा तो भी वह इस किंचित त्याग की अपेक्षा कछ श्रेष्ठ समझा गया। परन्तु इसका निर्णय त्याग की ओर से हुआ अन्य-माँस के ग्रहण पर से नहीं। एक चाण्डाल ने केवल चतुर्दशी की हत्या करने का त्याग किया परन्तु अन्य दिन हव्या करता रहा। उसके व्रत का निर्णय भी त्याग की ओर से ही किया गया अन्य दिनों की हत्या से नहीं। ३. क्रमोन्नत विकास-उपरोक्त कथन का स्पष्टीकरण करने के लिए जिसका त्याग करना इष्ट है ऐसे सम्पूर्ण वस्तु-समूह या लक्ष्मी का विश्लेषण करना होगा । सम्पूर्ण सामग्री या लक्ष्मी को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-एक वह जिस पर कि राज्य व लोक की दृष्टि में मेरा अधिकार है अर्थात् जो मेरे स्वामित्व में है, और दूसरी वह जिस पर राज्य व लोक की दृष्टि में मेरा कोई अधिकार नहीं है अर्थात् जो दूसरों के स्वामित्व में है । यद्यपि आकिञ्चन्य धर्म में बताए अनुसार सम्पूर्ण सामग्री का षटकारक रूप से त्याग करना इष्ट है, पर प्रथम क्षण में ऐसा होना सम्भव नहीं। अत: त्याग-मार्ग पर पग रखते हुए धीरे-धीरे सम्पूर्ण में से कुछ-कुछ का त्याग करना होगा। आप ही बताइये कि उपरोक्त दो भागों में से पहले किस भाग का त्याग करना उचित है, अपने स्वामित्व में रखी लक्ष्मी का या अन्य के में रखी का । स्पष्ट है कि अन्य की लक्ष्मी का त्याग पहले होगा। परन्त अन्य की लक्ष्मी का त्याग तो पहले से ही है ? सो भी बात नहीं है भाई ! यहाँ उस अभिप्राय का त्याग मुख्य है जिसके कारण कि मेरी लालायित दृष्टि उसकी ओर खिंच जाती है। साक्षात् रूप से तो उसका भोग मैं कर ही नहीं सकता, या तो चोरी कर सकता हूँ या केवल देखकर लालसा कर सकता हूँ, अत: ब्रह्मचारी के प्रथम पग में अन्य की वस्तु को चुराने का यो उसे देखकर लालसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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