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४४. उत्तम ब्रह्मचर्य
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३. क्रमोन्नत विकास
करने का त्याग हुआ। यह त्याग यद्यपि लोगों की दृष्टि में कोई महत्व नहीं रखता परन्तु वास्तव में यदि विचार करके देखा जाए तो अपनी लक्ष्मी के त्याग की अपेक्षा इसका महत्व अधिक है, क्योंकि अन्य की ल गुणी है, उसका सर्व का ही त्याग हो गया, रह ही कितनी गई, जिसे यदि सम्पूर्ण के बराबर रखकर देखें तो रखी भी दिखाई न दे । इसलिये वह व्यक्ति जिसने कि अन्य की सम्पत्ति पर, उनके द्वारा विवाह कर लाई गई, उनके स्वामित्व में रहने वाली स्त्रियों पर तथा उनकी कंवारी कन्याओं पर विकार भाव से दृष्टिपात करने का त्याग कर दिया है, ब्रह्मचारी है, भले ही इनके अतिरिक्त अपनी सम्पत्ति व स्त्री में कितना भी रमण क्यों न करे । परीक्षा त्याग पर से करनी है, रमणता पर से नहीं।
आगे त्याग की दूसरी श्रेणी चलती है। साधक यहाँ निज लक्ष्मी का भी त्याग करना प्रारम्भ करता है। एकदम सारी लक्ष्मी का हर प्रकार से त्याग असम्भव है, अत: थोड़ा-थोड़ा करता है। अपनी धर्मपत्नी में अति गृद्धता का त्याग करता है और ऐसा आचार-विचार तथा भोजन पान करता है जो कामभाव का पोषक न हो। अपनी सम्पत्ति के कुछ भाग का भी दान के रूप में त्याग कर देता है और स्व पर-भेदज्ञान में बाधक विकल्पों का भी त्याग करता है। त्याग की अपेक्षा ही पहले से श्रेष्ठ है यह, ग्रहण की अपेक्षा नहीं।
तीसरी श्रेणी में आकर वह भोगों से कुछ अंशो में विरक्त हो जाता है, कुछ संयम ग्रहण कर लेता है और दिन के समय काम-भोग का सर्वथा नियम से त्याग कर देता है । नियमित त्याग करने से उस प्रकार के विकल्प शान्त हो जाते हैं, बुद्धि में स्थिरता पैदा होती है । आत्म-ध्यान में स्थिरता प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से तीन काल सामायिक करता है। इससे भी ऊपर आकर धन-धान्य, रुपया-पैसा आदि सभी प्रकार के परिग्रह का परिमाण कर लेता है, जिससे उसकी आवश्यकतायें सीमित हो जाती हैं, बाह्य आरम्भ के अथवा परिग्रह को अधिक एकत्र करने के विकल्प नहीं रहते, संयम का स्तर पहले से ऊँचा हो जाता है, काम भोग को भी बहुत अंशों में छोड़ देता है । अष्टमी, चतुर्दशी आदि साधारण पर्व तथा अष्टाह्निका, सोलहकारण, दशलक्षण-धर्म, रत्नत्रय धर्म आदि विशेष पर्व, इन दिनों में तथा तीर्थ यात्रा के दिनों में विशेष संयम से रहता है । यहाँ पर त्यांग की मात्रा पहले से अधिक बढ़ जाती है।
चौथी श्रेणी में आकर त्याग की मात्रा और अधिक बढ़ जाती है। धन सम्पत्ति का और अधिक त्याग कर देता है, अपनी धर्मपत्नी से भी काम-भोग का पूर्णतया त्याग कर देता है, अधिक समय धर्म-ध्यान में बिताता है, सभी प्रकार के विषय-भोगों से अधिक मात्रा में विरक्त हो जाता है । इस श्रेणी में आने पर वह ब्रह्मचारी पद से विभूषित हो जाता है, यद्यपि असली अर्थों में पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं होता, क्योंकि पूर्णतया विकल्पों का अभाव यहाँ नहीं हुआ है । इस श्रेणी में आकर यद्यपि लोगों की दृष्टि में वह पूर्ण ब्रह्मचारी हो गया है, परन्तु क्योंकि स्त्री के साथ लगी लक्ष्मी अभी तक चली आ रही है इसलिए उसका त्याग किये बिना वह अभी पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता, उसे भी छोड़ना होगा। यद्यपि इस श्रेणी में लक्ष्मी का संसर्ग बहुत कम है, पर है अवश्य । इसमें भी क्रम से और कमी.करता हुआ पाँचवीं श्रेणी में एक लंगोटी व एक चादर के अतिरिक्त अन्य सर्व का त्याग कर देता है । वह भी ब्रह्मचारी है, चौथी श्रेणी से ऊँचा । यहाँ भी रुकता नहीं, लंगोटी व चादर का भी त्याग कर देता है और बन जाता है नग्न-साधु । वह भी ब्रह्मचारी है, पाँचवी श्रेणी से ऊँचा।
इस छठी श्रेणी में आने पर यद्यपि स्थूल दृष्टि से अब यह पूर्ण ब्रह्मचारी कहा जा सकता है, क्योंकि इसके पास स्त्री है न सम्पत्ति, सर्व त्याग हो चुका है, त्यागने को और शेष नहीं रहा, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इसके पास कुछ
और भी है और वे हैं उसके अन्तरंग विकल्प । अब तक के क्रमपूर्वक किये गये सर्व त्याग के साथ-साथ अन्तरंग विकल्पों का त्याग भी बराबर होता चला आ रहा था। जैसा कि पहले भी कई बार बताया जा चुका है और पुन: पुन: बताया जा रहा है, संवर के इस प्रकरण में अन्तर-विकल्पों के प्रशमन करने का पुरुषार्थ ही मुख्यता से किया जा रहा है। उनके प्रशमन करने के लिए ही या उनके प्रशमन के फलस्वरूप ही यह सर्व बाह्य का त्याग है, वह न हो तो इस त्याग का कोई मूल्य नहीं। इसलिए बहुत अधिक विकल्प दब चुके हैं परन्तु अब भी कुछ शेष हैं जिन्हें त्यागना है । पहले कुछ देर के लिए त्यागता है और हो जाता है ध्यानस्थ, शान्ति में निमग्न, निर्विकल्प । यह भी ब्रह्मचारी है, छठे से ऊँचा पर पूर्ण नहीं, क्योंकि अभी भी संस्कार शेष हैं जो थोड़ी देर पश्चात् इसमें फिर विकल्प उत्पन्न कर देंगे।
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