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४३. उत्तम आकिञ्चन्य
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४. सच्चा त्याग
यहाँ, प्रात: की प्रात: देखी जायेगी। इतने में एक राजा का लश्कर आया, संध्या पड़ रही थी, नदी के किनारे डेरे लगा दिये, आन की आन में मंगल हो गया। अहा हा ! कितना सुन्दर नगर बस गया, कितने दयालु हैं प्रभु, अपने इस भक्त पर दया करके यहाँ ही नगर बसा दिया ? वाह-वाह कितना अच्छा हुआ, अब कहीं भी जाना न पड़ेगा, बस इस नगर में अब मौज से कटेगी।' प्रात: होने पर जब देखा कि रंग ही बदल गया, तम्बू उखड़ने लगे, कूच का बिगुल बजा, चारों ओर चलने-चलने की उछल-कूद मची तो फिर क्या था, मानो प्राण ही निकल गये । एक व्यक्ति से पूछा कि भाई ! किधर जा रहे हो ? उसने कहा “कौन हो तुम?" अफीमची ने कुछ निराशाभरी आवाज में कहा, “ मेरे ही लिए तो भेजा था न प्रभु ने तुम्हें ?” “अरे चल-चल ! कौन तू और कौन तेरा प्रभु ? अपनी मर्जी से आये थे और अपनी मर्जी से जाते हैं । न तुझसे पुछकर आये न तुझसे पूछकर जाते हैं। तू कौन होता है हमसे बात करनेवाला ?" और निराशा में डबा रह गया बेचारा रोता का रोता।
क्या ऐसी ही दशा हमारी नहीं है ? पुत्र उत्पन्न हुआ, “अहा हा ! मेरी मुराद पूरी कर दी प्रभु ने, मेरे नाम को जीवित रखेगा यह' और न जाने क्या क्या ? खूब दान दो, खूब बाजे बजाओ, आज मेरा भाग्य जगा है।' और जिस दिन तम्बू उखड़ने लगे, पथिक जाने लगा ? 'अरे रे ! किधर जाते हो ?' 'कौन हो तुम?' 'मेरे लिए भेजा था न प्रभु ने तुम्हें ?' 'हट हट, कौन तू और कौन तेरा प्रभु ? अपनी मर्जी से आया था और अपनी मर्जी से जाता है । न तझसे पूछकर आया न तुझसे पूछकर जाता हूँ, कौन होता है तू मुझसे बात करने वाला ?' और निराशा में डूबे रोने लगे आप। इतने विषाद का क्या कारण है, क्या सोचा है कभी ? क्या उस पुत्र का जाना कारण है ? ऐसा मानना तेरी भूल है । पुत्र का जाना विषाद का कारण नहीं है और न ही उसका आना विषाद का कारण था, अर्थात् 'जो यह न आता तो आज क्यों विषाद होता', ऐसा मानना तेरी भूल है। वास्तविकता तो यह है कि यदि तू उसके अन्दर उस समय, 'मेरे लिये भेजा गया है, मेरा नाम जीवित रखेगा' इस प्रकार की षट्कारकी भूलें न करता, तो आज यह विषाद न होता। इसी प्रकार लक्ष्मी के आने-जाने के सम्बन्ध में भी समझ लेना । दृढ़तया यह निश्चय किये बिना, कल्पना मात्र से नहीं बल्कि वास्तव में कि कोई भी पदार्थ षट्कारकी रूप से मेरा है ही नहीं, उपरोक्त गर्जना निकलनी असम्भव है।
४.सच्चा त्याग ऐसा दृढ निश्चय होने के पश्चात समझ में आ जायेगा कल के त्याग का रहस्य । मेरा कछ है ही नहीं तो किसका त्याग? किसी वस्तु का तीन काल में एक समय के लिए ग्रहण ही नहीं हुआ तो किसका दान ? न कुछ त्याग न कुछ दान, केवल मिथ्याबुद्धि का त्याग, मिथ्याबुद्धि का दान, बस इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है त्याग का अभिप्राय । 'मैंने विश्व के लिए दान कर दी या त्याग दी' इस अभिप्राय में तो पड़ा है अभिमान, उस वस्तु का स्वामित्व अर्थात् 'मेरी थी मैंने त्याग दी' ऐसा आशय। यह त्याग पारमार्थिक नहीं, अर्थात् मेरा धर्म या स्वभाव नहीं प्रत्युत उसका साधन है, उसे हस्तगत करने का उपाय है।
देखो ! किसी समय मेरा एक लोटा आपके घर आया और पड़ा रहा वहाँ ही । माँगना भूल गया और आप देना भूल गये । प्रयोग में लाते रहे और यह विश्वास हो गया आपको कि वह आपका ही है। साल भर पश्चात् आपके घर मैं किसी कार्यवश आया, पीने को पानी माँगा, संयोगवश वही लोटा सामने आया। भाई साहब ! क्षमा करना, क्षोभ न लाना, यह लोटा तो मेरा है, यह देखो इस पर मेरा नाम खुदा है, साल भर से भूला हुआ था' और आपने भी नाम देखकर निश्चय कर लिया कि हाँ मेरा नहीं है । 'क्षमा करना भाई साहब बड़ी भारी भूल हुई मेरी, कहें तो नया मँगा दूँ, नहीं तो यही ले जाइये।' यही तो कहेंगे आप उसके उत्तर में या कुछ और? अब इसी के सम्बन्ध में दूसरी कल्पना कीजिये। कोई भिखारी आता है आपके घर और आप दया करके वही लोटा दे देते हैं उसे। लोटे के त्याग की दो कल्पनायें आपके सामने हैं, एक मुझे देने की और दूसरी भिखारी को देने की। दोनों कल्पनाओं में ही आप देने वाले हैं और वही लोटा दिया गया है। विचारिये कुछ अन्तर है दोनों त्यागों में ? मुझे जो दिया उसमें तो दिया ही क्या, आपका था ही नहीं। भिखारी को दिया, सो अपना करके देने के कारण हो गया अभिमान, 'मैंने उस पर एहसान किया।' यह काहे का त्याग? पहला वस्त-स्वरूप के आधार पर है और दसरा भ्रम व भल के आधार पर । पहले में निर्विकल्पता है और दूसरे में अभिमान का विकल्प, पहले में शान्ति है और दूसरे में अशान्ति, इसलिए पहला त्याग सच्चा है और दूसरा झूठा।
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