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________________ २१. साधना १२० १. महाविन तिष्ठो-तिष्ठो कहकर गुरु को आहार-दान देता है वह, परन्तु सब या तो लोक रञ्जना के लिये और या देव-गति में अथवा भोग-भूमि में जाने के लिये। बड़े-बड़े शास्त्र पढ़ता है वह, बड़ी-बड़ी ऊँची चर्चायें करता है वह, दूसरों को बड़े-बड़े ऊँचे उपदेश देता है वह, परन्तु या तो लोक-रञ्जना के लिये, या अपना पाण्डित्य प्रकट करने के लिये और या पाँव पुजवाने के लिये । बड़े-बड़े त्याग तथा तप करता है वह, बड़े-बड़े व्रत तथा उपवास धारण करता है वह, परन्तु या तो मात्र लोक-दिखावे के लिये या 'बड़ा त्यागी तपस्वी है' इत्यादि प्रशंसायें सुनने के लिये, या महन्त बनकर पाँव पुजवाने के लिये। खूब देख-देखकर खाता है वह, गिन-गिनकर पृथ्वी पर पाँव रखता है वह परन्तु केवल दिखावे के लिये । कहाँ तक कहा जाय, सभी क्रियायें कृत्रिम होती हैं उसकी, हृदयशून्य, प्राणशून्य, कोरा नाटक, कोरा दम्भाचार । और यदि गुरु-कृपा प्रसाद से कदाचित् कोई एक-आध निकल भी भागा वहाँ से तो चला गया नीचे धरातल में । हो गया निश्चयाभासी । अभिमान हो गया अपनी बुद्धि पर, ज्ञान पर । 'ओह ! मैं ? इतना महान् ? क्या जानें ये बेचारे रंक मेरे सामने ? बाह्य-क्रियाकाण्ड में उलझकर भूल गये हैं अपने को। क्या पता इन्हें किसे कहते हैं जीवतत्त्व चिदानन्द भगवान ? अन्तरंग से शून्य है इनका सर्व आचार । जड़वाद के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है इसे ? भगवान निकाले इनको इस अन्धकूप से । पकड़ मेरा हाथ, मेरी ही भाँति विचार, मेरी ही भाँति बोल 'सिद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, नि:सोगोऽहं, निरञ्जनोऽहं, अलिप्तोऽहं, पूर्णोऽहं, साक्षीमात्रोऽहं, ब्रह्मास्मि'। "देख उठ गया अब तू उस जड़-जगत से ऊपर और पहुँच गया चेतन-लोक में, जहाँ न है कोई छोटा न बड़ा, न इष्ट न अनिष्ट, न ग्राह्य न त्याज्य । हो गया अब तू जीवन्मुक्त । जो चाहे कर, जो चाहे खा, जो चाहे पी, जो चाहे पहन, जहाँ चाहे रह, जो चाहे विचार । तुझे क्या आवश्यकता है किसी की पूजा अथवा विनय करने की? तुझे क्या आवश्यकता है किसी का सम्मान करने की या किसी को नमस्कार करने की ? तुझे क्या आवश्यकता है अब शास्त्रादि पढ़ने की या किसी का उपदेश सनने की अथवा सत्संगति करने की? तझे क्या आवश्यकता है संयम तप, व्रत, उपवास के कष्ट उठाने की ? काय-शोषण के अतिरिक्त और रखा ही क्या है इसमें ? तुझे क्या आवश्यकता है किसी पर दया करने की अथवा किसी को दान देने की अथवा ध्यान आदि करने की ? पूर्ण जो है तू ?" भगवान जाने कैसे पूर्ण हैं वे कहने वाले और कैसे पूर्ण हैं वे सुनने वाले ? अपनी इस महानता के गर्व में भूल गये हैं वे यह भी कि 'अभिमान का सर सदा नीचा होता है' जितना महान् समझते हैं वे अपने को, उतने ही तुच्छ हैं वे। यहाँ से भी यदि जिस-किस प्रकार छटकारा मिला तो चले जाते हैं ऊपर । घरबार छोडकर रहने लगे श्मशान में जन-संसर्ग से दूर बिल्कुल अकेले । सुखा डाला शरीर महीनों-महीनों के उपवास करके । जला डाला इसे धूप में सिक-सिककर अथवा शीत में खड़ा रहकर । क्या मिलना है इस प्रकार की बालक्रियाओं से तथा बाल-तप से। यहाँ से भी यदि कदाचित् छूट पाया तो अटक गया व्यवहाराभास में । सब कुछ करता है वह और नेक-नियत से करता है वह । न रखता है आगामी सुखों की आकांक्षा, न वर्तमान भव की लोकेषणा, न लोक दिखावा । केवल आत्म-कल्याण के लिये करता है सब कुछ, परन्तु तात्त्विक विवेक से विहीन वह सब होता हैं पुण्य, न कि धर्म । समझता रहता है वह यह कि मैं कर रहा हूँ धर्म, परन्तु समता-लोक में प्रवेश न पाने के कारण वह रहता है उससे कोसों दूर । समझता रहता है वह उसे व्यवहार-धर्म परन्तु वास्तव में होता है वह व्यवहाराभास, न कि धर्म । तात्पर्य यह कि यह सब कुछ है असत्, कोरा प्रपञ्च, बिल्कुल नि:सार, बिल्कुल निष्प्राण । शान्ति तथा समता की सरस-प्रतीति तो है कहीं और, इन सबसे अतीत, केवल तेरे आगे वाली दिशा में, जिस ओर लक्ष्य करके कि चलना प्रारम्भ किया था तूने, और जिसे अब भूल चुका है तू, इन दिशाओं तथा विदिशाओं में भटककर । जैसा बीज वैसा ही फल । असत्य का फल असत्य और सत्य का फल सत्य। आप स्वयं सोच सकते हैं कि क्या फल मिल सकता है इस प्रकार के धर्म-कर्म से, विवेक-शून्य कोरे व्यवहाराभास से अथवा साधना विहीन कोरे निश्चयाभासी वाग्विलास से। शत्रु हैं ये सब तेरे, तुझे भ्रान्तियों में अटकाने वाले, तुझे अन्धकूप में धकेल देने वाले, तुझे तमोलोक में ले जाने वाले। सावधान रह इनसे तथा इनकी मायावी वकालत से, इनके प्रलोभनों से और आ गुरु-शरण में अथवा अनुभवी जनों की संगति में । देख कितने प्यार से बुला रहे हैं ये तुझे। पकड़ इनका हाथ और चल अपने आगे की दिशा में, उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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