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२१. साधना
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२. पट्लेश्या वृक्ष
लक्ष्य-बिन्दु की ओर । एक क्षण को भी मत भूल कि शान्ति प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है तेरा लक्ष्य, समता-रस पान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है तेरा प्राप्तव्य ।
२. षट्लेश्या वृक्ष - समता की प्राप्ति के लिये अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति का सूक्ष्मता से अवलोकन करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि मेरी प्रत्येक प्रवृत्ति काषायिक भावों में रंगी होती है। मन से विचारने का, वचन से बोलने का तथा शरीर से चेष्टा करने का जो कुछ भी काम मैं करता हूँ वह सब किसी न किसी कषाय से प्रेरित होता है। हमें केवल बाहर की प्रवृत्ति दिखाई देती है, परन्तु वह कषाय नहीं जिसकी गुप्त प्रेरणा से कि वह अस्तित्व में आ रही है। तीक्ष्ण प्रज्ञा के द्वारा उन्हें पकड़े बिना उनकी निवृत्ति का पुरुषार्थ- सम्भव नहीं, और उनसे निवृत्त हुए बिना समता का स्वप्न देखना वास्तव में साधना का उपहास है। कषायानुरञ्जित मेरी इन प्रवृत्तियों को शास्त्रों में 'लेश्या' शब्द के द्वारा अभिहित किया गया है । इनका स्पष्ट प्रतिभास कराने के लिए गुरुजनों ने तीव्रता मन्दता की अपेक्षा इन्हें छः भेदों में विभाजित किया है— तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम ।
कलापूर्ण बनाने के लिए इन्हें छः रंगों से उपमित किया है, क्योंकि जीव के प्रतिक्षण के परिणाम इन कषायों से रंगे हुए होने के कारण ही चित्रविचित्र दिखाई देते हैं । तीव्रतम भाव की उपमा कृष्ण या काले रंग से दी जाती है, तीव्रतर की नीले रंग से और तीव्रभाव की उपमा कापोत या कबूतर जैसे सलेटी रंग से दी जाती है। इसी प्रकार मन्द भाव की उपमा पीत या पीले रंग से, मन्दतर की पझ या कमल सरीखे हलके गुलाबी रंग से, और मन्दतम भाव की उपमा शुक्ल या सफेद रंग से दी जाती है । यद्यपि जीव के शरीर भी इन छः में से किसी न किसी रंग के होते हैं, परन्तु यहाँ शरीर के रंग से प्रयोजन नहीं है जीव के भावों के उपमागत रंगों से प्रयोजन है । इस प्रकार कषायों या इच्छाओं में रंगे हुए चेतन के ये परिणाम या लेश्या छ: प्रकार की होती हैं—– कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पझ व शुक्ल । इन्हीं को विशेष स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण देता हूँ ।
एक बार छ: मित्र मिलकर पिकनिक मनाने निकले। सुहावना-सुहावना समय, मन्द-मुन्द शीतल वायु, आकाश पर नृत्य करने वाली बादलों की छोटी-छोटी टोलियां, मानो प्रकृति के यौवन का प्रदर्शन कर रही थीं। छहों मित्रों के हृदय भी अरमानों से भरपूर थे । सब ही अपने-अपने विचारों में निमग्न चले जाते थे । नदी के मधुर गान ने उनके हृदय और भी उमंग भर दी। वे भूल गए सब कुछ और खो गए इस सुन्दरता में ।
आ हा हा हा ! कितना सुन्दर लगता है, और देखो मित्र इस ओर ! वाह-वाह काम बन गया, अब खूब आनन्द रहेगा, जी भरकर आम खायेंगे। सामने ही मद झरते पीले-पले आमों से लदा एक वृक्ष खड़ा था। एक बार ललचाईसी दृष्टि से देखा और स्वतः ही उनके पांव उस ओर चलने लगे । छहों के हृदय में भिन्न-भिन्न विचार थे।
वृक्ष के पास पहुँचते ही अपने-अपने विचारों के अनुसार सब ही शीघ्रता से काम में जुट गए। एक व्यक्ति कहीं से एक कुल्हाड़ी उठा लाया, जिसे लेकर वह वृक्षपर चढ़ गया और आमों से लदफद एक टहनी को काटने लगा। यह देखकर दूसरा मित्र उसकी मूर्खता पर हँसने लगा। बोला “ अरे मूर्ख ! क्यों परिश्रम व्यर्थ खोता है ? जितनी देर में इस टहनी को ऊपर जाकर काटेगा उतनी देर में तो नीचे वाला यह टहना ही सरलता से कट जाएगा। टहनी में तो दस पाँच ही आम लगे हैं, छहों का पेट न भरेगा। इस टहने में सैकड़ों लगे हैं, एकबार नीचे गिरा लो, फिर जी भरकर खाओ और साथ में घर भी बांधकर ले जाओ।” यह सुनकर नीचे खड़ा वह तीसरा मित्र अपनी हंसी रोक न सका और बोला, "अरे भोले ! यदि घर ही ले जाने हैं तो नीचे आओ मैं तुम्हें और भी सरल उपाय बताता हूँ। वृक्षपर चढ़ने से तो चोट लगने का भय है, तथा अधिक लाभ भी नहीं है । नीचे ही खड़े रहकर इसे मूल से काट डालो । वृक्ष थोडी ही देर में
गिर जाएगा, फिर बेखटके खाते रहना और जितने चाहो भरकर घर ले जाना। भैय्या ! मैं तो एक छकड़ा लाकर सारा ही वृक्ष लादकर घर ले जाऊँगा। कई दिन आम खाऊँगा और सालभर ईन्धन में रोटी पकाऊँगा । छकड़ेवाला अधिक से अधिक पांच रुपया लेगा।" और ऐसा कहकर लगा मूल में कुठार चलाने ।
शेष तीन मित्र अन्दर ही अन्दर पछताने लगे कि व्यर्थ ही इन दुष्टों के साथ आए जिसका फल खायेंगे उसको ही जड़ से काट डालेंगे । धिक्कार है ऐसी कृतघ्नता को । कौन समझाए अब इनको । प्रभु इन्हें सद्वृद्धि प्रदान करें ।
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