________________
२१. साधना
१२२
२. क्ट्लेश्या वृक्ष साहस बटोरकर उनमें से एक बोला कि भो मित्र ! तनिक ठहरो, मैं एक कथा सुनाता हूँ पहिले वह सुन लो, फिर वृक्ष काटना । तीनों चुप हो गए और कथा प्रारम्भ हुई।
एक बार एक सिंह कीचड़ में फँस गया। बड़ी दयनीय थी उसकी अवस्था। बेचारा लाचार हो गया। क्या तो उसकी एक दहाड़ से सारा जंगल थरथरा जाता था और क्या आज वह ही सहायता के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रहा है, कि नाथ ! अबकी बार बचा तो हिंसा न करूंगा, पत्ते ही खाकर निर्वाह कर लूँगा। प्रभु का नाम व्यर्थ नहीं जा सकता। एक पथिक उधर से आ निकला, सिंह की करुण-पुकार ने उसके हृदय को पिघला दिया। यद्यपि भय था परन्तु करुणा के सामने उसने न गिना, और बेधड़क कीचड़ में घुसकर उस सिंह को बाहर निकाल दिया।
वह समझता था कि वह सिंह अपने उपकारीका घात करना कभी स्वीकार न करेगा, परन्तु उसकी आशा के विपरीत सिंह ने बंधन-मुक्त होते ही एक भयानक गर्जना करके उस व्यक्ति को तत्काल ललकारा, "किधर जाता है, मैं तीन दिन का भूखा हूँ, तूने मुझे बन्धन से मुक्त किया है और तूहा मुझ भूख से मक्त किया है और तही मझे भख से मक्त व
करेगा।" अब तो तले की मिट्टी खिसकने लगी, वह घबरा गया, प्रभु के अतिरिक्त अब उसके लिये कोई शरण नहीं थी। उसने उसे याद किया, फल-स्वरूप उसे एक विचार आया। वह सिंह से बोला कि भाई ! ऐसी कृतघ्नता उचित नहीं है सिंह कब इस बात को स्वीकार कर सकता था, गरजकर बोला, "लोक का ऐसा ही व्यवहार है, तू अब मुझसे बचकर नहीं जा सकता।" पथिक को जब कोई उपाय न सूझा तो बोला, कि अच्छा भाई ! किसी से इसका न्याय करा लो। ___ व्यवहारकुशल सिंह ने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली, मानो उसे पूर्ण विश्वास था कि न्याय उसके विरुद्ध न जा सकेगा, क्योंकि वह जानता था कि मनुष्य से अधिक कृतघ्नी संसार में दूसरा नहीं है। दोनों मिलकर एक वृक्ष के पास पहुँचे और अपनी कथा कह सुनाई। वृक्ष बोला कि सिंह ठीक कहता है । कारण कि मनुष्य गर्मी से संतप्त होकर मेरे साये में सुख से विश्राम करता है, मेरे फलों के रस से अपनी प्यास बुझाता है, परन्तु फिर भी जाते हुए मेरी टहनी तोड़कर ले जाता है, अथवा मुझे उखाड़कर चूल्हे का ईन्धन बना लेता है। अत: इस कृतघ्नी के साथ कृतघ्नता का ही व्यवहार करना योग्य है।
निराश होकर वह आगे चला तो एक गाय मिली । उसको अपनी कथा सुनाई, पर वह भी पथिक के विरुद्ध ही बोली। कहने लगी कि अपनी जवानी में मैंने अपने बच्चों का पेट काटकर इस मनुष्य की सन्तान का पोषण किया, परन्तु बूढी हो जाने पर यह निर्दयी मेरा सारा उपकार भूल गया, और इसने मुझे कसाई के हवाले कर दिया । इसने मेरी खाल खिंचवाली और उसका जूता बनवाकर पाँव में पहिन लिया। अत: इस कृतघ्नी के साथ ऐसा ही व्यवहार करना योग्य है।
जहाँ भी वे गये न्याय सिंह के पक्ष में ही गया, और सिंह ने उसे खा लिया। इसलिये भो मित्रो ! तुम्हें भी कुछ विवेक से काम लेना चाहिये। दूसरे की कृतघ्नता को तो तुम कृतघ्नता देखते हो परन्तु अपनी इस बड़ी कृतघ्नता को नहीं देखते। जिस वृक्ष के आम आप खायेंगे उस पर ही कुठाराघात करते क्या आपका हृदय नहीं कांपता? नीचे उतर आओ भैया, नीचे उतर आओ, मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। मैं स्वयं वृक्षपर चढ़कर तुम्हें भरपेट आम खिला दूंगा।
वह वृक्ष पर चढ़ गया और आमों के बड़े-बड़े गुच्छे तोड़कर नीचे डालने लगा। यह देखकर दूसरे मित्र से बोले बिना न रहा गया । बोला कि, "मित्र ! तुम्हें भी विवेक नहीं है । क्या नहीं देख रहे हो कि इस गुच्छे में पके हुए आमों के साथ-साथ कच्चे भी टूट गये हैं, जो चार दिन के पश्चात् पककर किसी और व्यक्ति की सन्तुष्टि कर सकते थे। परन्तु अब तो ये व्यर्थ ही चले गये, न हमारे काम आये और न किसी अन्य के । अत: आप नीचे आ जाइये, मैं स्वयं ऊपर चढ़कर तुम्हें पके-पके मीठे आम खिला दूंगा। यह कहकर वह वृक्षपर चढ़ गया और चुन-चुनकर एक-एक आम तोड़कर नीचे गिराने लगा।
छठा व्यक्ति यह सब कुछ देख रहा था, परन्तु चुप था। क्या बोले, किसे समझाये ? उसकी सन्तोषपूर्ण बात को स्वीकार करने वाला यहाँ था ही कौन ? विद्वान लोग, मूों को उपदेश नहीं देते । एक दिन की बात है कि वर्षा जोर से हो रही थी। एक वृक्ष के नीचे कुछ बन्दर ठिठुरे बैठे थे । वृक्षपर कुछ बयों के घोंसले थे । वे बये सुखपूर्वक उन घोंसलों में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org