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२१. साधना
१. महाविघ्न; २. षट्लेश्या वृक्ष; ३. आभ्यन्तर साधना; ४. बाह्य साधना; ५. समन्वय ।
१. महाविघ्न- यह तो है केवल दर्शन-सिद्धान्त, तत्त्व - परिचय, स्वभाव- निर्धारण । यह तो है केवल लक्ष्य या गन्तव्य, ज्ञात न कि प्राप्त । किसी वस्तु को जानने मात्र से अथवा कहने मात्र से प्राप्त नहीं हो जाती वह । बहुत कुछ करना पड़ता है उसकी प्राप्ति के लिए। भोजन को जानने मात्र से पेट नहीं भर जाता और न कहने मात्र से; बहुत कुछ करना पड़ता है अन्न प्राप्ति के लिये और भोजन पकाने तथा खाने के लिए। तीर्थराज को जानने मात्र से पहुँचा नहीं जाता वहाँ और न कहने मात्र से; चलना पड़ता है उसके लिए पहले-पहले ग्राम को पीछे छोड़ते हुए और अगले- अगले ग्रामों में प्रवेश करते हुए । महल की छतको जानने मात्र से पहुँचा नहीं जाता वहाँ और न कहने मात्र से, चढ़ना पड़ता है उसके लिए पहले-पहले सोपान को छोड़ते हुये और अगले- अगले सोपान पर पग रखते हुये। न तो जान लेना पर्याप्त प्राप्ति के इस क्षेत्र में, न कहना मात्र और न किसी एक ग्राम या सोपान को प्राप्त करके सन्तुष्ट हो जाना मात्र । करते रहना है प्रयत्न के साथ, चलते रहना है उत्साह के साथ, चढ़ते रहना है पूरे धैर्य के साथ, उस समय तक जब तक कि प्राप्त न हो जाय वह लक्ष्य अथवा गन्तव्य । वाग्विलास को प्रवेश नहीं इस क्षेत्र में और न ही प्रमाद को । साहसी वीर को ही अधिकार है प्रवेश पाने का इसमें ।
आ मेरे साथ यदि वास्तव में प्राप्त करना चाहता है तू इसे, परन्तु देख कहीं भी अटक नहीं जाना है, बराबर चलते रहना है मेरा पल्ला पकड़े बराबर बढ़ते रहना है आगे-आगे। न देखना है मुड़कर अपने पीछे, न दायें-बायें, न ऊपर-नीचे । निश्चल करके चलना होगा अपनी दृष्टि को, अर्जुन की भाँति अपने लक्ष्यपर; और स्तम्भित करके चलना होगा अपनी बुद्धि को, ध्रुव की भाँति अपने गन्तव्यपर। अनेकों आवाजें सुनाई देंगी तुझे, अनेकों दृश्य दिखाई देंगे तुझे अपने आगे-पीछे, दायें-बायें, ऊपर-नीचे, अन्दर-बाहर; कुछ डरावने, कुछ लुभावने और कुछ लजावने । याद रख कि कहीं सुन लिया उन्हें या देख लिया उनकी ओर तो पत्थर का बनकर रह जायेगा। बड़ा विकट है यह मार्ग । बच्चों का खेल नहीं है इसपर चलना । भले ही आगे चलकर निर्बाध हो जाय यह, निष्कण्टक हो जाय यह, सुखद हो जाय यह, परन्तु प्रारम्भ में अनेकों बाधायें तथा विघ्न पड़े हुए हैं इसमें, अनन्तों कण्टक बिछे हुये हैं इसमें, अति दुःखद है यह । अनन्तों मायाजालिये तथा स्वांगिये बैठे हैं इसमें । पद-पद पर धोखा देंगे वे तुझे, पद-पद पर फिसलाने का प्रयत्न करेंगे
तुझे, ठगने का प्रयत्न करेंगे वे तुझे; और तू पहचान नहीं सकेगा उनकी माया को, तू जान नहीं सकेगा उनके स्वांग को, तू पकड़ नहीं सकेगा उनकी ठगी को। कोई चतुराई काम नहीं आयेगी तेरी । बड़े चतुर कलाकार हैं वे । यदि पहचान पाये उन्हें तो फिर उनकी चतुराई ही क्या रही ? केवल गुरुदेव ही समर्थ हैं उन्हें पहचानने के लिये अन्य कोई नहीं, अन्य कोई नहीं। बस गुरु का पल्ला पकड़कर चलना होगा, निर्भय । समझले कि उनका पल्ला छूटा कि तू गया। अनेकों साहसी वीर चले हैं इस पर परन्तु धराशायी होकर रह गये हैं सब, गुरु-चरण-शरण छूट जाने के कारण । कुछ तो पीछे मुड़कर चले गये वहीं जहाँ से कि आये थे वे अर्थात् धन, स्त्री कुटुम्ब में और कुछ जो चाहते हुये भी लोक-लाज के कारण न मुड़ सके उधर, वे मुड़ गये अपनी दायीं ओर, सकाम भावरूप निदान के प्रति अर्थात् अगले भव में प्राप्त होने योग्य राज्य-वैभव या देव-वैभव के प्रति । शास्त्र के भय से जो साहस न कर सके इस दिशा में मुड़ने
, वे मुड गये अपनी बाईं ओर जिधर बिछे हुये हैं एषणा के विविध जाल, कुछ पुत्रेषणा के, कुछ वित्तेषणा के, कुछ लोषणा के कुछ ख्याति प्रसिद्धि के कुछ सुविधा प्राप्ति के और कुछ स्वार्थ पोषण के । बड़े सूक्ष्म हैं ये । यही है वह राक्षसी 'पूतना' जो प्राण खेंचती रहती है सबके, अपने स्तनों का मीठा परन्तु विषैला दूध पिला-पिलाकर । लोक दिखावे का दम्भाचरण ही है इसका प्रधान शस्त्र । बड़े-बड़े ज्ञानी तथा विरागी फँसते देखे गए हैं इसके जाल में। एक बार फँसकर छूटना असम्भव है। मधुर स्वरों में गा-गाकर तथा नाच-नाचकर भगवान की पूजा करता है वह, बड़ी भक्ति से
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