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________________ ३०. दान २१० ४. पात्र दान निराश्रितों को दिया गया आश्रय, शरणार्थियों को दी गई शरण, रोग, मरी, बाढ़ दुर्भिक्ष अथवा राजविप्लव द्वारा सताये गयों को दी गई यथोचित सहायता, सेवा आदि यह सब कहलाता है 'अभयदान' ।। ये चारों ही प्रकार के दान दिए जा सकते हैं अपने घर दुकान पर दान पाने की कामना से आने वाले किसी व्यक्ति-विशेष को, तथा सामूहिक रूप से सबको जिन-किन को भी दान पाने की इच्छा है। पहले प्रकार का दान तो आप प्रतिदिन अपने घर दुकान पर करते ही हैं, दूसरे प्रकार का दान किया जाता है सार्वजनिक संस्थान खुलवाकर या धन, अन्न, श्रम आदि द्वारा उनकी सहायता करके; अन्नदान के लिये भण्डारे खुलवाकर या उनमें यथाशक्ति योग देकर; औषधदान के लिए औषधालय, हस्पताल आदि खुलवाकर अथवा उनमें यथाशक्ति योग देकर; ज्ञानदान के लिए पाठशाला, स्कूल, कालेज खुलवाकर या उनमें यथाशक्ति योग देकर; अभय-दान के लिए आश्रम, धर्मशाला आदि बनवाकर.सेवा समितियें खलवाकर अथवा उनमें यथाशक्ति योग देकर । ३. पात्रापात्र विचार-दान किसको दिया जाए इस विषय की जानकारी भी आवश्यक है। दान के पात्रों को तीन कोटियों में विभक्त किया जा सकता है—सुपात्र, कुपात्र तथा अपात्र । 'सुपात्र' हैं वे ज्ञानीजन जिन्हें अपने भीतर शान्ति के तथा उसके आधारभूत चेतन-तत्त्व के साक्षात्कार का सौभाग्य प्राप्त हो गया है और जो यथाशक्ति उसकी प्राप्ति का उद्यम भी कर रहे हैं । 'कुपात्र' हैं वे अज्ञानीजन जिन्हें अपने भीतर तत्त्व का तो साक्षात् दर्शन अभी नहीं हुआ है परन्तु शास्त्रोक्ति पर श्रद्धान करते हुए शान्ति-प्राप्ति की जिज्ञासा अवश्य इनके हृदय में जाग्रत हो गई, और उसके लिये यथाशक्ति उद्यम भी कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सभी व्यक्ति भले ही वे अर्थार्थी हों, दीन दुःखी दरिद्री हों, प्राकृतिक-विप्लव अथवा राजविप्लव के सताये हुए हों, अथवा पशु-पक्षी आदि हों, सब 'अपात्र' की कोटि में आते हैं । सुपात्र तथा कुपात्र ये दोनों भी साधनागत निम्नोन्नत सोपानों की अपेक्षा अनेक प्रकार के हो सकते हैं, परन्तु वे सब उत्तम, मध्य, जघन्य इन तीन-भेदों में समा जाते हैं। ये पुन: दो कोटियों में विभाजित हो जाते हैं-परिचित तथा अपरिचित । परिचित तो हैं वे जो समाज के मध्य रहते हैं, जो नित्य किसी न किसी प्रकार आपको टकराते रहते हैं, अथवा जिनके उल्लेख व चित्र आदि पत्र-पत्रिकाओं में, या कैलेण्डरों आदि पर प्रकाशित होते रहते हैं। अपरिचित हैं वे जो इन सकल संयोगों से दूर रहते हैं। भले आज किन्हीं ऐसे पात्रों को आप न जानते हों परन्तु शास्त्रों में उनका उल्लेख आप सबने पढ़ा है । जन संसर्ग से दूर श्मशानों में अथवा वनों में अथवा वृक्षों की कोटरों में अथवा पर्वतों की गुफाओं में अथवा नदी के पुलों के नीचे अथवा किन्हीं टूटे-फूटे खण्डहरों में रहते हैं वे । नगरों से दूर छोटे-छोटे गाँव के निकटवर्ती उद्यानों में रहते हैं वे । केवल भिक्षा के लिये गाँव में आते हैं, और झलक मात्र दिखाकर लौट जाते हैं वे। ४. पात्र दान-भले ही शान्ति का उपासक होने के नाते दान के इस क्षेत्र में मेरा जितना व जैसा झुकाव सुपात्र के प्रति है उतना कुपात्र तथा अपात्र के प्रति न हो; और अल्पज्ञ होने के नाते जितना व जैसा झुकाव परिचितों के प्रति है उतना तथा वैसा अपरिचितों के प्रति न हो, क्योंकि अपनी अल्पज्ञता के कारण मैं यह जान ही नहीं सकता कि यह व्यक्ति सुपात्र है या कुपात्र या अपात्र । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दान के इस क्षेत्र में कुपात्रों तथा अपात्रों की उपेक्षा कर दी जाय । जिस प्रकार सम्प्रदाय-प्रसिद्ध व्यक्तियों में यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि बाहर से सच्चे साधु अथवा श्रावक सरीखे दीखने वाले ये व्यक्ति वास्तव में वही हैं जो कि ऊपर से दीखते हैं या कुछ अन्य हैं, इसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों में भी यह पता लगाना कठिन है कि ये व्यक्ति अन्तरंग में सुपात्र हैं या कुपात्र या अपात्र । बहुत सम्भव है कि ऊपर से दीन, दुःखी तथा दरिद्री सा दीखने वाला भी कोई व्यक्ति तत्त्वज्ञ हो और तत्त्वज्ञ सा दीखने वाला भी कोई व्यक्ति कोरा दम्भाचारी हो। "मैं परिचितों को अर्थात् सम्प्रदाय-मान्य व्यक्तियों को ही दान +, अन्य किसी को नहीं", शान्ति-मार्ग के पथिक को ऐसा साम्प्रदायिक पक्ष उचित नहीं है। वह दान देता है स्व पर हित की रक्षा तथा उसकी अभिवृद्धि के लिए न कि सम्प्रदाय पोषण के लिए और इसलिए यथाशक्ति सबको देता है। आगम में भी कहीं कपात्रों या अपात्रों को दान देने का निषेध नहीं है। भले ही भावों में अन्तर हो-जिसे तू सुपात्र समझता है उसके प्रति हार्दिक भक्ति, जिसे कुपात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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