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३०. दान
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२. दान धर्म
पत्र उत्पन्न हो जाय तो हे प्रभु ! मैं तेरे चरणों में अमुक वस्तु की भेंट दे दूँ, अथवा इतना रुपया दे दूँ, अथवा छत्र चढ़ा दूँ, अथवा मन्दिर में वेदी बनवा दूं या घी की ज्योत जला दूं।' इस प्रकार के प्रयोजन से भगवान को दी गई घूस वित्तेषणा और पुत्रेषणा युक्त होने से दान नहीं है। इसी प्रकार 'इस दान से समाज में मेरा नाम हो जाए, मेरे पिता, पितामह का नाम हो जाए, मेरी कीर्ति फैल जाए कि मैं बड़ा धनाढ्य, धर्मात्मा तथा दानवीर हूँ' इस प्रकार के अभिप्रायों से दिया गया सर्व दान लोकेषणा युक्त होने से निरर्थक है। पहला दिया जाता है प्राय: मन्दिरों में ओर दूसरा दिया जाता है—मन्दिरों, धर्मशालाओं, स्कूल-कालेजों, औषधालयों तथा हस्पतालों आदि सभी प्रकार की सामाजिक संस्थाओं में, और इसके अतिरिक्त साहित्य प्रकाशन में भी।
क्या विचारा है कभी कि एषणा युक्त दिये गये इस सकाम दान से कितना कुछ हित हो रहा है तेरा अथवा किसी अन्य व्यक्ति का अथवा समाज का ? इस भावना से प्रेरित होकर जिन मन्दिरों या प्रतिमाओं का तू निर्माण किए जा रहा है नित्य उनकी वहाँ कोई आवश्यकता भी है या नहीं. अथवा उनकी देखभाल पजा-प्रक्षाल आदि करने वाला भी वहाँ कोई है या नहीं? इस भावना से प्रेरित होकर जो पुस्तकें छपाये जा रहा है तू, बड़ी या छोटी, अथवा नये-नये साप्ताहिक या मासिक पत्र-पत्रिकाएँ निकलवाए जा रहा है तू, उन्हें पढ़ने वाला भी कोई है या नहीं, अथवा उनके पढ़ने से किसी का कुछ हित होना भी सम्भव है या नहीं ? इस साहित्य द्वारा क्या कुछ देना चाहता है तू जगत को-समता व प्रेम या साम्प्रदायिक विद्वेष, आक्षेपों के, समीक्षाओं के तथा खण्डन-मण्डन के रूप में ? नित्य छोटी-छोटी भजनों की जो पुस्तकें छपवा-छपवाकर बाँट रहा है तू, उसका सदुपयोग हो रहा है कुछ या जा रही हैं सब यों ही रद्दी की टोकरी में?
भो पुरुषार्थी ! विचार तो कर कि क्या करेगा इस नाम को लेकर, खायेगा, बिछायेगा या ओढ़ेगा इसे ? मात्र तेरी एषणाओं का, कामनाओं का, इच्छाओं का पोषण ही तो हो रहा है इससे और क्या? और इसलिए परमार्थत: लाभ की बजाय हानि ही हानि, अहित ही अहित, स्व का भी अहित और पर का भी अहित । राग अथवा इच्छा को कम करने के लिए दिया था दान और कर बैठा उसका पोषण । उधर लेने वाले के हृदय में जागृत करके इसी प्रकार की एषणायें, कर दिया उसका भी सब कुछ चौपट । सौदेबाजी के अतिरिक्त और क्या कहें इसे ? जिस प्रकार बाजार में पैसा देकर चीज खरीद ली, उसी प्रकार यहाँ भी पैसा देकर कीर्ति खरीद ली। घूसखोरी का व्यापार है यह । जिस प्रकार अफसरों को घस देकर अपना उल्लू सीधा कर लिया, उसी प्रकार भगवान को घूस देकर अपना उल्लू सीधा कर लिया। बता
और क्या फल चाहता है तू इस दान का, इस भव में या अगले भव में ? इसका नाम दान नहीं है प्रभो ! सम्भल इन दष्ट संस्कारों से और रक्षा कर इनसे अपनी।
भो शान्ति के उपासक ! यदि शान्ति प्राप्ति की सच्ची जिज्ञासा तथा श्रद्धा है तेरे हृदय में, तो दातार बन, असाधारण दातार, निष्काम दातार । साधारणजन देते हैं शारीरिक सुख के लिए और तू दे आत्मिक सुख के लिए। साधारणजन देते हैं विषय भोगों की प्राप्ति के लिए और तू दे शान्ति की प्राप्ति के लिए। साधारणजन देते हैं केवल पर कल्याण के लिये और तू दे स्व पर कल्याण के लिये । साधारण जन देते हैं अपने को दूसरे का उपकारी समझकर और तू दे केवल कर्त्तव्य समझकर । साधारणजन देते हैं रागवर्द्धन के लिए और तू दे रागवर्जन के लिए । साधारणजन देते हैं धन-मान की प्राप्ति के लिए और तू दे धन-मान के त्याग के लिए। तभी तो बन पायेगा तेरा यह दान 'त्याग' नामक धर्म, जिसका कि कथन आगे आने वाला है (देखो अधिकार ४२)। योगीजन करते हैं पूर्ण त्याग घर-बार का, धन कुटुम्ब का, वस्त्र-भोजन का यहाँ तक कि बाह्य और अभ्यन्तर शरीर का भी; और तू कर आंशिक त्याग धनदान के रूप में, अन्नदान के रूप में, औषधदान के रूप में, ज्ञान दान के रूप में और अभयदान के रूप में।
इस प्रकार एक ही दान विभक्त हो जाता है चार प्रधान कोटियों में-अन्नदान, औषधदान, ज्ञानदान और अभय दान । भखे की क्षधा-निवृत्ति के अर्थ दिया गया धन, अन्न या भोजन, अथवा साधु-जनों को दिया गया आहार 'अन्नदान' है । रोगियों तथा पीड़ितों के रोगादि की निवृत्ति के अर्थ दिए गए धन, औषधि आदि 'औषधदान' है। ज्ञानार्थी की अज्ञान-निवृत्ति के अर्थ दिए गए धन, पुस्तक आदि अथवा अध्यापन, भाषण, प्रवचन आदि 'ज्ञानदान है। दारिद्रय-पीड़ितों को दी गई आर्थिक सहायता, असमर्थों को दी गई श्रम सहायता, चिन्तितों को दी गई सान्त्वना,
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