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________________ ३०. दान ( १. सहज दान; २. दान धर्म; ३. पात्रापात्र विचार; ४. पात्र दान; ५. सामाजिक दान। १. सहज दान शान्तिपथ-गामी को बाधक संस्कारों से मुक्ति पाने का क्रमिक सहज उपाय बताया जा रहा है। गृहस्थ-धर्म की छ: क्रियाओं के अन्तर्गत पाँचवीं क्रिया (तप) का प्रकरण पूरा हुआ और अब चलता है छटी क्रिया (दान) का प्रकरण । वास्तव में दान का अन्तर्भाव भी व्युत्सर्ग या त्याग नाम के तप में हो जाता है। (देखो ४०.३) और इसलिए दान भी एक तप है, परन्तु सत्य-साधक गृहस्थों के लिए इसकी प्रधानता होने के कारण इसका यहाँ पृथक् निर्देश किया गया। दान का तात्पर्य है दूसरे को कुछ देना। हमें विचार इस बात का करना है कि हम आज किसी को कुछ दे रहे हैं या नहीं, तथा इस दान को हमारा कर्त्तव्य क्यों बताया जा रहा है ? ये दो प्रश्न हैं। प्रथम प्रश्न पर विचार करते हुए यह बात प्रतीत होती है कि धनादि बाह्य सामग्री देने के अतिरिक्त मैं प्रतिक्षण कुछ और भी दे रहा हूँ इस लोक को । मैं ही क्या इस लोक के जड़ व चेतन सब ही पदार्थ एक दूसरे को दे रहे हैं कुछ न कुछ। पदार्थों का यह पारस्परिक आदान-प्रदान बराबर चल रहा है । देखिये इस घड़ी की सूई अभी साढ़े सात पर आई और हमारे चित्त को कुछ उतावलपनसा देने लगी, 'उपदेश का समय आ गया' यह सूचना देने लगी। देखो भगवान की जड़ प्रतिमा हमको शान्ति दे रही है, सुभाष का चित्र हमें साहस दे रहा है, यह विष्टा हमें घृणा दे रही है, ये शब्द जो मैं बोल रहा हूँ कुछ विवेक दे रहे हैं, मानसिंह डाकू हमें दूर बैठा भी भय दे रहा है, वन में विराजे वीतरागी गुरु हमको ही नहीं बल्कि समस्त विश्व को शान्ति व समता दे रहे हैं। उन गुरुओं का अभाव हो जाने के कारण ही उनके द्वारा दिया जाने वाला दान बन्द हो गया है, अत: सारा विश्व असन्तुष्ट है और एटम बम जैसे अस्त्रों का जन्म हुआ है । संशय और भ्रम के झूले में झूलते जगत को आज शान्ति का दान देने वाले वीतरागी गुरुओं की बहुत आवश्यकता है। किस-किस का नाम लेकर बताएँ, प्रत्येक पदार्थ कुछ न कुछ दे रहा है, शान्ति या अशान्ति, भय या अभय । मैं भी इसी प्रकार दे रहा हूँ कुछ, किसी एक दो व्यक्तियों को नहीं बल्कि सारे विश्व को । वास्तविक दान तो वीतरागी गुरु ही दे सकते हैं जो कुछ न देते हुए भी सब कुछ देते हैं, जिसका मूल्य तीन लोक की सम्पदा भी चुका नहीं सकती एक हाथ से नहीं बल्कि रोम-रोम से दे रहे हैं. एक व्यक्ति को नहीं बल्कि सर्व विश्व को दे रहे हैं. तिर्यञ्चों व वनस्पति तक को दे रहे हैं, शान्ति का दान अपने जीवन से । मैं भी तो उन्हीं की सन्तान हैं, उन्हीं के पथ पर चल रहा है, मुझे भी वही कुछ देना चाहिए जो वे दे रहे हैं; अर्थात् मेरा जीवन भी ऐसे साँचे में ढल जाना चाहिए जिससे कि सर्व विश्व को नहीं तो अपने सम्पर्क में आने वाले छोटे-बड़े प्राणियों को तो दे ही सकूँ मैं शान्ति, हीन या अधिक । यही है वह अन्तरंग तथा आदर्श-धन जो स्वत: प्रतिक्षण दिया जाना सम्भव है, यदि पूर्वकथित रूप से अपने जीवन का निर्माण करूँ तो। २. दान धर्म अब लीजिए बाह्यदान, लोक-विख्यात दान, अर्थात् धनादि वस्तुओं का स्व पर कल्याणार्थ व्युत्सर्ग या त्याग । इसमें यद्यपि धन का त्याग एक आवश्यक अंग है परन्तु ‘स्व-पर-कल्याणार्थ' इस विशेषण के बिना वह निरर्थक है। हम सब धन का दान तो नित्य कर रहे हैं, उसमें कोई कमी नहीं है और सम्भवत: इस समाज में होने वाली दान की प्रवृत्ति सबसे अधिक है, परन्तु क्या स्व-पर-कल्याण वाला विशेषण उसमें घटित किया जा सकता है, यह देखना है। यदि वह घटित नहीं होता तो वह दिया-दिलाया बेकार है। दातार का सर्व प्रथम कर्त्तव्य है कि उस महादोष के प्रति सावधान रहे जो कि दिये-दिलाये सबको खत्ते में डाल देता है, किये-कराये सब पर पानी फेर देता है, और वह महादोष है एषणा-पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा। 'यदि मेरे व्यापार में लाभ हो जाये, अथवा मेरी नौकरी लग जाये, अथवा परीक्षा में या मुकदमें में सफल हो जाऊँ अथवा यदि मेरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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