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________________ २९. तप २०७ ६. नव- संस्कार जो कि पूर्व के अनेकों संस्कारों को परास्त करने में समर्थ है, और जिसका विश्वास हो जाता है अन्तर की उस महान् प्रतीति से जो हमारे पूर्व की अशान्ति व वर्तमान की किञ्चित् शान्ति के बीच साक्षात् अनुभव में आ रही है । अबुद्धि-पूर्वक का तात्पर्य यहाँ यह न समझ बैठना कि बिना किसी भी पुरुषार्थ के ही वह अवस्था बराबर बनी रहेगी । इस अवस्था में भी कुछ पुरुषार्थ अवश्य लगाना होगा, उस नवीन संस्कार की धारा को बराबर प्रवाहित रखने के लिए। यह बात अवश्य है कि उस पुरुषार्थ में लगाये जाने वाला बल प्रारम्भ में लगाये जाने वाले बल से बहुत कम होगा। जिस प्रकार कि लोटे में पानी भरकर उसमें डोरी बाँधकर घुमायें तो पहले चक्कर में झटका देते समय कुछ अधिक बल लगाना पड़ता है और सावधानीपूर्वक लगाना पड़ता है कि कहीं पानी बिखर न जाये, परन्तु एक चक्कर खा लेने के पश्चात् आगे भी उसे घूमता रखने के लिए भले ही उतना बल व उतनी सावधानी न रखनी पड़े, परन्तु प्रत्येक चक्कर के साथ अंगुली का एक संकेत तो देना ही पड़ेगा। कार्य प्रारम्भ हो जाने के पश्चात् उसे चालू रखने के लिए जो यह थोड़ा सा बल लगाना पड़ता है, इसे आज के वैज्ञानिक एञ्जीनियर एक्सीलरेशन कहते हैं तथा गणित वे लोग इस प्रक्रिया - विशेष में प्रयुक्त बल को अर्थात् एक्सीलिरेशन पावर को प्रारम्भ में प्रयुक्त बल की अर्थात् स्टार्टिंग पावर की अपेक्षा कई गुणी हीन सिद्ध कर रहे हैं। मोटर स्टार्ट करते समय पहले सैकैण्ड गीयर पर चला जाती है और एक बार चलने के पश्चात् अन्तिम गीयर पर डाल जाती है । फस्ट या सैकैण्ड गीयर पर उसकी गति धीमी होती है और पैट्रोल अधिक खाती है । परन्तु अन्तिम गीयर पर उसकी गति भी तीव्र हो जाती है और पैट्रोल भी बहुत कम खाती है; अर्थात् आरम्भ अधिक बल लगाकर भी कम काम कर पाती है और चालू हो जाने के पश्चात् कम बल लगाने से भी अधिक काम कर लेती है। यही वैज्ञानिक सिद्धान्त सर्वत्र सभी कार्यों में लागू होता है। सिद्धान्त शान्ति तथा समता की प्राप्ति के अर्थ प्रारम्भ की गई अपनी साधना पर लागू कर, और वही होगा तेरी वर्तमान दशा में होने वाला तप, 'मानस तप' जो २४ घण्टे चलता रहेगा तेरे दैनिक जीवन में । दृष्टिपथ में आने के कारण यद्यपि लोक में बाह्य तप की ही महिमा आंकी जाती है, परन्तु विविध प्रकार की एषणाओं से मन का शोधन किये बिना वह सब बाल-तप है, अधोलोक - गामिनी आसुरी वृत्ति है । इस बात का प्रत्यक्ष अध्ययन किये बिना कि किसी प्रकार अनेकानेक मायावी समाधानों के द्वारा यह मन भीतर ही भीतर व्यक्ति की समस्त वृत्तियों को अपने आधीन करके सत्य को असत्य बनाता रहता है, और किस प्रकार इस पारमार्थिक पथ में भी वह स्वार्थ पुष्टि के साधनों का संग्रह करता रहता है, व्यक्ति कभी उसके राज्य का उल्लंघन करके उसके सुदृढ़ पाशों से मुक्त नहीं हो सकता । मन को सर्वथा निष्काम तथ समता में स्थित किये बिना व्यक्ति जो कुछ भी बाहर में करता है, उस सबके पीछे कोई न कोई एषणा, कोई न कोई कामना, कोई न कोई स्वार्थ अवश्य बैठा रहता है, वह है इस लोक विषयक, धन-कुटुम्बादि विषयक या ख्याति प्रसिद्धि विषयक । कामनापूर्ण यह स्वार्थ ही वह असत्य है जिसके कारण सकल बाह्य तपश्चरण के द्वारा उसे व्यर्थ देह-पीड़न के अतिरिक्त अन्य कुछ भी हाथ नहीं आता । उसमें तप करने के प्रति उत्साह अवश्य होता है परन्तु केवल किसी एषणा की प्रेरणा से न कि शान्ति के रसास्वादन से । इसलिए साधक का कर्त्तव्य है कि वह उतावल न करे, साधु-जनों के तपश्चरण की नकल न करे, प्रत्युत उनकी भूमि में प्रवेश करने से पहले यहाँ इस गृहस्थ दशा में ही मानस तप के द्वारा घोड़े की भाँति इस मन को सिधावे, इससे कामनाओं व इच्छाओं का विरेचन करावे, और इस प्रकार इसे साध्वोचित समता - भूमि में प्रवेश करने के योग्य बनावे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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