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२९. तप
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६. नव-संस्कार
शुभ संस्कार उत्पन्न हो जाए, जिसका झुकाव हर समय शान्ति के अभिप्राय को प्रेरित करना हो, जिस प्रकार कि वर्तमान संस्कारों का झुकाव भोग आदि के अभिप्राय को प्रेरित करना है।
संस्कार उत्पन्न करने का उपाय बन्ध-तत्त्व वाले प्रकरण में स्पष्ट कर दिया गया है । (देखो १५.२) बस वही प्रयोग इस अभीष्ट संस्कार को उत्पन्न करने के लिए भी लागू करना है । वैज्ञानिक ढंग यही है किसी कार्य को करने का कि अनुभूत कार्य का विश्लेषण करके 'वह किस प्रकार तथा किस क्रम से करने में आया है' यह जाना जाए और उस क्रम को एक सैद्धान्तिक रूप दे दिया जाये, हर कार्य पर लागू करने के लिए। संस्कार को उत्पन्न करने के क्रम में बताया गया था, बुद्धि-पूर्वक की कोटि से प्रारम्भ करके उसका अबुद्धि-पूर्वक की कोटि में चले जाना । यहाँ भी यह नवीन संस्कार पहले-पहले बुद्धि-पूर्वक बल लगाकर प्रारम्भ करना होगा, और इस बुद्धि के प्रयोग को तब तक चालू रखते रहना होगा जब तक कि दृढ़ व पुष्ट होकर वह अबुद्धि की कोटि में न चला जाय।
क्या है यह बुद्धि का प्रयोग, यही अब बताता हूँ। मैं जीवन में कुछ ऐसा प्रयत्न करूँ कि भले ही काम के अवसरों में न सही परन्तु उन फालत अवसरों में वह बात मेरे उपयोग में आ जाए जो प्रात: मन्दिर में देखी थी.सनी थी. विचारी थी तथा धारी थी। अर्थात् उन अवसरों में यदि कल्पनाएँ ही करनी हैं तो बजाय उपरोक्त कल्पनाओं के कुछ अन्य जाति की कल्पना क्यों न करूं? उस जाति की कल्पनाएँ जिनसे कि वे अवसर उतने काल के लिए स्वयं सुन्दर बन जायें, शान्त बन जायें, तथा अगले अवसरों को भी वैसा बनने की प्रेरणा दें। और इस प्रकार उन फालतू अवसरों को मैं उपयोगी बना लूँ ? यह ठीक है कि पहले-पहले उन सर्व ही फालतू अवसरों को उपयोगी बनाने में मैं सम्भवत: सफल न हो पाऊँ, परन्तु यदि प्रयत्न करूँ तो क्या यह भी सम्भव नहीं कि उन सर्व अवसरों में से कोई एक या दो अवसर कदाचित् मैं उपयोगी बना सकूँ ? ऐसा हो जाना अवश्य सम्भव है। उपयोगी बने हुए उन अवसरों में स्वभावत: अनुभव में आई कोई अलौकिक शान्ति मेरे पूर्व के अभिप्राय को और पष्ट कर देगी, परसों वाले प्रवचन में बताये अनुसार विरोधी संस्कार को कुछ क्षति पहुँचायेगी, सफलता के प्रति मेरे अन्दर में पड़े संशय को दूर करेगी और साहस में कुछ वृद्धि करेगी । मैं अधिक उद्यमी बनकर शेष रहे अन्य अवसरों में भी उन बातों को उपयोग में लाने का प्रयत्न करूँगा, तथा एक दिन सफल हो जाऊँगा उन सर्व फालतू अवसरों को उपयोगी बनाने के लिये।
इतने पर ही बस न होगा। इस बात का अधिक विस्तार करने की आवश्यकता नहीं कि उत्पन्न हुई उस शानि प्रेरित होकर यह मेरा परुषार्थ बराबर इस दिशा में आगे बढ़ता चला जायेगा, और धीरे-धीरे उन उपयक्त अवसरों की गिनती में वृद्धि होने लगेगी। अब कदाचित् ग्राहक से बातें करते या अन्य कोई आवश्यक कार्य करते हुए भी थोड़ी देर के लिए उपयोग में वह बात आने लगेगी। केवल बुद्धि-पूर्वक का पुरुषार्थ ही नहीं, पूर्व का अभ्यास भी अबुद्धिपूर्वक इस कार्य में मेरी सहायता करता रहेगा। आगे-आगे उपयोगी अवसरों की गिनती में ही वृद्धि नहीं होगी बल्कि उनके काल में भी बराबर वृद्धि होती चली जायेगी, और इस प्रकार बराबर दो दिशाओं में वृद्धि होते-होते एक दिन ऐसा आ जायेगा जबकि ये सर्व अवसर मिलकर एक अटूट धारा बन जायेंगे अर्थात् उस प्रकार का उपयोग बराबर अन्दर में बना रहेगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, नहाते-धोते, सोते-जागते हर समय ही वह उपयोग अन्दर में छिपा हुआ कुछ हल्की-हल्की चुटकियाँ भरा करेगा। मैं बाहर में तो सौदा तोलता हूँगा ग्राहक को और अन्दर में वेदन करता
त-रस के आनन्द वाली चुटकियों का, और अब वह बात किसी भी वातावरण में भूल नहीं पाऊँगा, जैसाकि पहले हो जाया करता था। यही तो था प्रयोजन जिसकी सिद्धि क्रमपूर्वक चलने से हो गई।
अभ्यास हो जाने के पश्चात् कोई बुद्धिपूर्वक का विशेष पुरुषार्थ उस दिशा में करना नहीं पड़ता, वह कार्य थोड़े से इशारे मात्र से ही स्वयं चलता रहता है । जिस प्रकार बड़े परिश्रम से बुद्धिपूर्वक पग बढ़ाने का अभ्यास करने वाला बालक, अभ्यस्त हो जाने पर मात्र थोड़े से इशारे से दौड़ने तक लगता है, उसे अपनी बुद्धि को विशेषतया उस दिशा में लगाने की आवश्यकता नहीं होती, पाँव से चलते हुए भी वह बुद्धि से कुछ और बातें विचारने का काम लिया करता है, उसी प्रकार उपरोक्त अभ्यस्त दशा हो जाने पर उस साधक गृहस्थ की बुद्धि भले ही बाहर में किसी और दिशा का कार्य करती रहे पर अन्तरंग का वह प्रयोजनभूत कार्य बुद्धि-पूर्वक की कोटि में आकर एक संस्कार का रूप धारण कर चुका है । वह संस्कार
न्ति से
हगाउ
न हल्की
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