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२९. तप
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६. नव-संस्कार
यद्यपि मन्दिर के अनुकूल वातावरण में रहते हुए मैं उस शान्ति का तनिक वेदन कर आया हूँ, परन्तु गृहस्थी के वातावरण में आने पर जबकि मैं घर में होता हूँ, बीवी-बच्चों से बातें करता या भोजन करता होता हूँ, दुकान पर ग्राहकों से बातें करता या माल बेचता-खरीदता होता हूँ, दफ्तर में अपने स्वामी से सलाह करता या अपने आधीन को कुछ आज्ञा देता हूँ, मोटर या रेल में यात्रा करता या मार्ग में गमन करता होता हूँ, तब 'वह शान्ति कहाँ चली जाती है' मैं नहीं जानता। वहाँ रहते हए भी उसको कैसे स्थायी रखा जा सके, विशेषतया ऐसी स्थिति में जब कि मैं उस उपरोक्त वातावरण को अनिष्ट जानते हुए भी तथा उसको छोड़ना चाहते हुए भी छोड़ने को समर्थ नहीं हूँ; अथवा जबकि मैं उस प्रकार की कठिन तपस्या करने को समर्थ नहीं हूँ जैसी कि योगीजन करते हैं। वह कौन-सा तप है जो मैं ऐसी स्थिति में रहते हुए कर सकूँ और किञ्चित् मात्र अपने जीवन में सफल हो सकूँ।
निराश मत हो प्रभु ! भय मत कर । तुझे योगियों वाला, क्षुधादि बाधाओं को जीतने वाला शारीरिक तप करने को नहीं कहा जायेगा । कुछ ऐसा तप बताया जायेगा जो तू सुविधापूर्वक कर सकेगा, अर्थात् मानस तप; केवल शक्ति को न छिपाकर वैसा प्रयत्न करने की आवश्यकता है, इससे तेरी गृहस्थी को अथवा तेरी सम्पत्ति या तेरे शरीर को कोई बाधा नहीं होगी।
गृहस्थी के उस वातावरण का विश्लेषण करके मुझे यह बता कि क्या उसमें बीतने वाला तेरा सारा का सारा समय किसी आवश्यक कार्य करने में ही व्यतीत होता है या बीच-बीच में कभी ऐसे अन्तराल भी आ जाते हैं जब कि तू न बीबी बच्चों से बातें करता हो और न ग्राहकों से, अर्थात जबकि त कोई भी आवश्यक कार्य न करता हो. या बिल्कल खाली बैठा हो, या अकेला कहीं चला जा रहा हो, या लेटा हुआ हो ? 'ओह ! ऐसे अवसर तो एक दो नहीं अनेकों आते हैं, सारे दिन में । कोई छोटा होता है और कोई बड़ा, अर्थात् कभी अन्तराल पाँच मिनट का होता है और कभी घण्टों का भी।'
भला यह तो बता कि तू क्या काम किया करता है इन अन्तरालों में ? "कुछ विशेष कार्य नहीं, केवल कुछ कल्पनायें, कुछ चिन्तायें इस जाति की जो कि मुझे व्याकुलता के वेग में बहा ले जाती हैं । भाव घट गया है माल का, पचास हजार का माल पड़ा है घर में, क्या होगा? कोई आशंका सी, यदि यह सत्य हो गई 'तो' ? ब्लड प्रैशर का रोग बता दिया है डाक्टर ने, बड़ा भयानक है यह, हार्ट फेल होने का डर है । एक आशंका सी, यदि सत्य हो गई 'तो' ?' और इसी प्रकार अनेकों निराधार कल्पनायें, जिनका आधार है केवल अनुमान व संशय । और यदि सौभाग्यवश कोई आकर बीच में टोक दे मुझे, अर्थात् मेरे उपयोग को इधर से हटाकर खींच ले अपनी ओर तो मैं बड़ा ही प्रसन्न हो जाता हूँ । 'अच्छा ही हुआ यह ग्राहक आ गया, क्या ही अच्छा होता कि हर समय ही ग्राहक खड़े रहते मेरे पास, और मुझे ऐसी कल्पनायें करने का अवसर ही न मिल पाता।' अर्थात् करता हूँ इस आशंका जनित 'तो' सम्बन्धी चिन्तायें, और इनके न आने को ही मानता हूँ अपना सौभाग्य।"
तब तो बहुत सरल हो गया तेरे लिए। किसी आवश्यक कार्य को छोड़ने की या उसमें बाधा डालने की आवश्यकता नहीं, केवल उन फालतू वाले अन्तरालों का दुरुपयोग न करके सदुपयोग कर । किस प्रकार सो सुन। यह पहले बताया जा चुका है कि अभिप्राय या लक्ष्य पूर्णता का होता है, परन्तु अभिप्राय के साथ-साथ कार्य भी पूर्ण हो जाए यह नियम नहीं। हाँ यह नियम अवश्य है कि कार्य करने के प्रति पुरुषार्थ अवश्य प्रारम्भ किया जाता है, यदि उपाय सम्बन्धी कुछ जानकारी हो तो। तुझमें भी इस वातावरण में रहते-रहते शान्त रहने का सच्चा व दृढ़ अभिप्राय तो बन चुका है और जीवन में उस अभिप्राय की किञ्चित् मात्र पूर्ति के पुरुषार्थ करने को भी उद्यत हुआ है, परन्तु उपाय का भान न होने के कारण तेरा यह अभिप्राय कुछ बेकार सा पड़ा है । ले वह उपाय बताता हूँ।
६. नव-संस्कार–किसी शत्रु का विनाश करने के लिए नीतिज्ञ व्यक्ति उसके मुकाबले में उसके किसी अन्य शत्रु को भड़काकर खड़ा कर दिया करते हैं, और इस प्रकार बिना स्वयं आफत में पड़े अपने प्रयोजन की सिद्धि कर लिया करते हैं। बस तू भी यदि बिना उपसर्गादि सहे इन संस्कारों का विनाश करना चाहता है तो इनके सामने इनके विरोधी किसी अन्य संस्कार को लाकर खडा कर दे. अर्थात प्रयत्न कर कि तेरे अन्दर एक नवीन जाति का कोई विशेष
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