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५. शान्ति मार्ग
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४. चारित्र
मरण, न पुण्य न पाप, न धर्म न अधर्म, न ग्राह्य न त्याज्य । और यही है क्षोभ का अभाव, पूर्ण वीतरागता, पूर्णकामता, कृतकृत्यता । इसे ही कहते हैं चारित्र और यही है धर्म । पूजा आदि क्रियाओं को धर्म कहना तो उपचार है। वास्तव में वस्तु का स्वभाव ही धर्म का लक्षण है । क्योंकि शान्ति अर्थात् निर्विकल्पतारूप होने के कारण यह समता मेरा स्वभाव है, इसलिये यही मेरा धर्म है।
विचित्र बात सुन रहे हैं। हम तो सनते थे कि “यह छोड़, यह कर, यह खा, यहाँ रह", इत्यादि क्रियाओं का नाम चारित्र है, और देव पूजा आदि का नाम धर्म, परन्तु आप तो कुछ और ही कह रहे हैं ? शान्त हो प्रभु ! शान्त हो, तेरा सुना हुआ भी गलत नहीं है। वह वास्तव में चारित्र नहीं चारित्र की साधना है। वैसा-वैसा करते हुये धीरे-धीरे जीवन की भाग-दौड़ समाप्त होती जाती है, पहिले बाह्य जीवन की और फिर भीतरी जीवन की। और इस प्रकार एक लम्बे काल तक अभ्यास करते रहने पर वह दिन भी आ जाता है जबकि साधक का द्विविध क्षोभ शान्त हो जाता है और निज स्वभाव-स्वरूप साक्षात् चारित्र की उपलब्धि करके, खो जाता है वह उसमें सदा के लिये। जिस प्रकार 'अन्न' प्राण नहीं, परन्त प्राणों को टिकाये रखने का कारण है. और इसीलिये लोक-व्यवहार में 'अन्न ही प्राण है ऐसी उक्ति प्रचलित है. उसी प्रकार ग्रहण-त्याग आदि की उक्त क्रियायें चारित्र नहीं परन्तु उसकी प्राप्ति का कारण या उपाय हैं, और इसीलिये लोक-व्यवहार में ‘ग्रहण-त्याग, शुद्ध-भोजन, देव-दर्शन, सामायिक ध्यान आदि चारित्र अथवा धर्म हैं', ऐसी उक्ति प्रचलित है.
उड़ रे पंछी ऊँचे ऊँचे आ अपने शिवपुर में । खोज रहा क्या इस भव वन में, क्या भूला विभ्रम में | स्वच्छ लोक का वासी तू है, दिव्य लोक का वासी। ऊर्ध्व गमन है परिणति तेरी, तू असीम विलासी ॥MATI
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