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________________ ४६. चारित्र ( १. सामान्य परिचय; २. पंचविध चारित्र; ३. समन्वय। १. सामान्य परिचय–नित्य ही शान्ति में विचरण करते हुए, शान्ति-रानी के साथ क्रीड़ा करने में मग्न, हे गुरुवर ! मुझे शान्ति प्रदान करें । आज चारित्र की बात चलती है । यद्यपि चारित्र का कथन दर्शन-खण्ड में शान्ति-मार्ग की त्रयात्मकता का प्रतिपादन करने के लिए पहले किया जा चुका है, तदपि यहाँ पुन: उसका कथन करना पुनरुक्ति को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वहाँ दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय के अन्तर्गत चारित्र का केवल सामान्य स्वरूप दर्शाना इष्ट था और यहाँ साधना का प्रकरण होने के कारण उसका क्रमोन्नत विशेष स्वरूप दर्शाना इष्ट है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यह चारित्र उससे सर्वथा भिन्न कोई अन्य वस्तु है। सामान्य तथा विशेष ये दोनों ही एक अखण्ड वस्त के दो अंग हैं, सामान्य अंग साध्य है और विशेष अंग उसकी प्राप्ति का साधन । साधन तथा साध्य दोनों की जाति में कोई भेद नहीं हुआ करता, भेद होता है तो केवल इतना कि स्वभाव होने के कारण साध्य या प्राप्तव्य पूर्ण होता है, परन्तु उसकी प्राप्ति का उपाय होने के कारण साधन में उसी स्वभाव की किसी एक निम्नतम अभिव्यक्ति को पुरुषार्थ-पूर्वक धीरे-धीरे बढ़ाकर पूर्णता तक पहुँचाने का प्रयत्न या अभ्यास किया जाता है। स्वभावभूत तथा पूर्ण-समता रूप न होते हुए भी कारण में कार्य का उपचार करके इन सकल प्रयत्नों को चारित्र कह दिया जाता है। और इस प्रकार इस साधना खण्ड में कथित देवपूजा से लेकर ध्यान पर्यन्त के जितने कुछ भी अंगों का विवेचन किया गया है, वे सब अंग क्योंकि एक मात्र समता या शान्ति की प्राप्ति, उसकी अभिवृद्धि तथा उसकी पूर्ति के अर्थ किए जाने वाले विविध अभ्यास हैं, इसलिए वे सभी उपचार से चारित्र कहे जाते हैं। तथापि इस प्रकरण में इस अभ्यास के उन अंगों का कथन करना इष्ट है जो कि केवल योगीराज के जीवन में उपलब्ध होते हैं, उनके जीवन में जो कि अब तक की लम्बी साधना के फलस्वरूप समता की उत्तरोत्तर उन्नत विविध श्रेणियों का अतिक्रम करते हुए, साक्षात् रूप से शान्ति की श्रेणी में अथवा सोपान पर पदार्पण कर चुके हैं उनका सकल बाह्य चारित्र अर्थात् साधना की अंगभूत बाह्य क्रियायें सिमटकर अन्तरंग में उतर चुकी हैं । क्रमश: अभिवृद्ध उनके इस चारित्र को पाँच श्रेणियों में विभाजित करके देखा जा सकता है । योगियों के समतारूप चारित्र की इन पाँच श्रेणियों का परिचय देना ही इस अधिकार का प्रयोजन है। २. पंचविध चारित्र-अहो इस साधना की महिमा कि मुझे आज वह दिन देखने को मिला जब मैं एक शिशु से वीर बन गया, एक साहसी वीर । योद्धा की भाँति मैने योगी जीवन में प्रवेश किया और अधिक दृढ़ता के साथ पहले के अभ्यास को अत्यन्त पुष्ट किया; व्रत, समिति, गुप्ति के द्वारा उसे निश्चल व अकम्प बनाया। दस धर्मों से सिञ्चित तथा वैराग्य भावनाओं से परिपुष्ट साधना का वह कोमल पौधा आज एक विशाल वृक्ष बन गया है, जिसे देखकर स्वयं मुझे विश्वास नहीं होता कि मैंने कहाँ से चलना प्रारम्भ किया था। अनेकों भव पीछे से प्रारम्भ किये गये उस पुरुषार्थ ने आज मुझे लक्ष्य के अत्यन्त निकट पहुँचा दिया है । बराबर इस जीवन में विकल्प शान्त होते चले गये, संस्कार नष्ट होते चले गये और तदनुसार शान्ति में वृद्धि होती चली गई। मैंने पहले पग से ही शन्ति का पल्ला आज तक नहीं छोड़ा, हर बाह्य क्रिया के साथ-साथ अन्तरंग क्रिया को नहीं भूला, यही कारण है कि आज ब है कि आज बढ़ते-बढ़ते इस दशा को पहुँच गया कि बुद्धिपूर्वक का मेरा शान्ति में स्थिति पाने का प्रयास अबुद्धि-पूर्वक की कोटि में प्रवेश कर गया और विकल्पोत्पादक संस्कारों के द्वारा खाली किया गया स्थान शान्ति के संस्कार ने ले लिया। एक नवीन संस्कार जीवन में उत्पन्न हुआ अथवा यों कहिये कि शान्ति के साँचे में ढाला गया जीवन आज बाहर निकला । गुरुदेव का कृपा-प्रसाद न कहें इसे तो और क्या कहें ? (१) आहा हा ! कितना सुन्दर है यह । अब इसका रूप बिल्कुल बदल गया है, मानो यह पहले वाला मैं नहीं हूँ इसे देखकर मुझे स्वयं आश्चर्य हो रहा है, कि अरे ! क्या स्वप में भी कभी ऐसा बन जाने की आशा थी ? परन्तु 'हाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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