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४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा
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४. बारह भावनायें
क्या ? ले देख अपने पराक्रम को, कर एक बार गर्जना, पूरे जोर से, “मैं चेतन्य हूँ, सत्-चित्त-आनन्द और पूर्ण-ब्रह्म-परमेश्वर, आओ कौन आता है सामने, आज साक्षात् अग्नि बनकर आया हूँ मैं, क्षण भर में भस्म कर डालूँगा, जीर्ण कर डालूँगा संस्कारों को।” युद्ध कर इनके साथ शान्ति के बलपर, प्रहार कर इन पर शान्ति के शस्त्र से, वही शान्ति जो तेरा सर्वस्व है, तेरा स्वभाव है एक बार की धुड़धुड़ी में झड़ जायेंगे सब, वस्त्र पर लगी धूल की तरह, जायेगी 'निर्जरा' इनकी, और मिल जाएगी सदा को मुक्ति इनसे ।
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(१०) प्रभो ! अपनी महिमा को भूलकर आज कुएँ में घुस बैठा है, मेंढक बनकर ? क्यों इतना भयभीत हुआ जाता है, क्यों पामर बना जाता है ? अब निकल इस कुएँ से बाहर देख कितना बड़ा है यह विश्व ? तुझ जैसे अनन्तों का निवास, तथा अन्य भी अनेकों का घर । सभी ही तो रह रहे हैं यहाँ, अपनी-अपनी मौज में, सर्वत्र सैर करते, इसकी सुन्दरताओं में लीन होते । तू क्यों घबरा गया है इससे ? यहाँ तो कुछ भी भय का कारण नहीं । जिस प्रकार अन्य रहते हैं उसी प्रकार तू भी रह, स्वतन्त्रता के साथ, स्वामी बनकर, ज्ञाता दृष्टा बनकर । देख इसमें सर्वत्र ईश्वर का निवास, देख इसमें एक अद्वैत ब्रह्म, देख इसमें अपनी सृजन शक्ति (देखो २६.१०) परन्तु देखना अजायबघर की तरह, अपने घर की तरह नहीं (देखो १२.२) । पीछे ध्यान के प्रकरण में जो सुना था उसे याद कर । बस प्रकट हो जायेगी एक विशाल दृष्टि, जिसका आधार होगी माध्यस्थता व समता और तू बन बैठेगा सर्व 'लोक' का स्वामी, बाहर में नहीं, ज्ञान में ।
(११) अरे रे चेतन ! अनादि काल से आज तक क्या मिला है तुझे ठोकरों के अतिरिक्त ? दूर-दूर भटकता फिरता रहा है आज तक । चाँदी-सोने की धूल अनेकों बार मिली, चाम- माँस का पिण्ड अनेकों बार मिला, कुटुम्बादि अनेकों बार मिले, देवादि के रूप अनेकों बार मिले परन्तु उनमें से क्या मिला तुझे ? आज देख अपने अन्दर, क्या पड़ा है, उनका कुछ बचा हुआ भी यहाँ ? यदि कुछ मिला होता तो कुछ न कुछ तो होता तेरे पास ? परन्तु यहाँ तो शून्य है, को शून्य । क्या मिला और क्या न मिला, मिलता हुआ भी न मिला। जो मिलने योग्य था वह मिल पाया नहीं, जो नहीं मिलने योग्य था उसमें मिलने की कल्पना की, कैसे मिलता तुझे ? आज गुरुदेव की शरण में आकर ही मिला है कुछ नवीन सा, वह जो आज तक नहीं मिला था, वह जिसको लेकर कृतकृत्य हो गया है तू, वह जिसमें छिपा पड़ा है तेरा वैभव | मानो तेरा सर्वस्व ही मिल गया है आज तुझे, वह जिसके मिलने की आशा भी नहीं थी तुझे, जो किसी बिरले को ही मिलता है बड़े सौभाग्य से, जिसे लेकर और कुछ लेने की चाह नहीं रहती, जिसके मिल जाने पर अन्य कोई वस्तु नहीं जञ्चती । क्यों न हो ? उसमें दिखाई जो दे रही है तेरी शान्ति, तेरा अभीष्ट । अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त इस 'बोधि- दुर्लभ रत्न के प्रति बहुमान उत्पन्न कर । अब तेरे कल्याण का समय निकट आ रहा है, 'होनहार विरवान के चिकने-चिकने पात' । गुरु के द्वारा प्रदान किए गए, इस रहस्यात्मक ज्ञान से तेरा सर्व अन्धकार विनश जाएगा, और तू बन जाएगा वह जो कि तू है, सत्-चित्-आनन्द, पूर्ण ब्रह्म, परमेश्वर ।
(१२) बस यही तो है तेरा 'धर्म', तेरा स्वभाव, तेरी समता, तेरी शान्ति, तेरा ऐश्वर्य, तेरा सर्वस्व, आज तक जिसे जान न पाया, जिसकी खोज में दर-दर मारा फिरा । वाह वाह ! कितना सुन्दर है यह, कितना शीतल है यह, भव-भव का सन्ताप क्षण भर में विनष्ट हो गया। अब तक के बताए गए इतने लम्बे मार्ग का भली-भाँति निर्णय करके इस पर दृढ़ता से विश्वास कर, इसके अनुरूप बनने का दृढ़ संकल्प कर और बनने का प्रयास कर । इस प्रकार का ज्ञान श्रद्धान अनुचरण, बस यही तो है उपाय उस शान्ति की प्राप्ति का, जिसका लक्ष्य लेकर तू भटकता फिरता है यहाँ । कितना सहल है तथा सुन्दर है यह ? ले अब धीरे-धीरे पी जा इसे। यह है 'धर्म-भावना' ।
इस प्रकार अनित्यता, अशरणता, संसार, पृथकत्व (अन्यत्व), एकत्व, अशुचि, आस्रव संवर, निर्जरा, लोक, बोधि-दुर्लभत्व व धर्म इन बारह प्रकार के विकल्पों का आश्रय लेता हुआ, बड़ी से बड़ी बाधाओं को तृणवत् नहीं गिनता है वह योगी । यही है वह शक्ति जिसका स्वामित्व उसको प्राप्त हुआ है। तू भी अन्य कल्पनाओं के स्थान पर इन कल्पनाओं के स्वामित्व को प्राप्त कर । इन कल्पनाओं का आधार है । वस्तु जबकि तेरी कल्पनाओं का आधार है कोरी कल्पनाएँ । यह सार-स्वरूप, है, और वह सब है निस्सार । तभी तो यह शान्ति में सहायक है । सार से ही सार निकलना सम्भव है, निस्सार से निस्सारता के अतिरिक्त और निकलेगा ही क्या ?
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