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________________ ४६. चारित्र ३०१ २. पंचविध चारित्र कंगन को आरसी क्या', सामने पड़ा यह जीवन स्वयं अभ्यास की अचिन्त्य महिमा को दर्शा रहा है। अब मेरा जीवन है, अत्यन्त शान्त, समता के सांचे में ढला हुआ। यह अब विकल्पों की ओर नहीं दौड़ता, चाहे बाहर से आहार करता हूँ या उपदेश देता हूँ बुद्धिपूर्वक किया गया सीमित समय का ध्यान, सामायिक या समता का अभ्यास आज मेरे जीवन का अंग बन गया है । सीमित समय के लिये ही नहीं चौबीसों घण्टों के लिए यह अब समता में चरण करता है। इसे अब सीमित समय के लिये ध्यान या सामायिक करने की आवश्यकता नहीं, यह स्वयं सामायिकरूप बन चुका है । शान्ति की वह तुच्छ कणिका बढ़ते-बढ़ते अब पूर्णता के इतने निकट पहुँच चुकी है कि मैं नित्य ही जीवन में शान्ति का अनुभव कर रहा हूँ। साधु-जीवन के इस अंग का नाम है 'सामायिक चारित्र'। (२) परन्तु आश्चर्य है इन दुष्ट संस्कारों के साहस पर, तप की भट्टी में झोंककर अच्छी तरह जला दिया गया है जिन्हें । जली रस्सीवत् पड़े वे आज भी कभी-कभी अपना सर उठा-उठाकर यह सिद्ध कर ही देते हैं कि अभी वे जीवित हैं, भले अन्तिम श्वास ले रहे हों। परन्तु कब तक जीवित रह सकोगे बच्चा? अब छोड़ो इस दर को, जाओ किसी दूसरे द्वार माँगो खाओ, यहाँ रहोगे तो भूखा मरना पड़ेगा। जब-जब भी इनसे प्रेरित होकर कदाचित् विकल्प मुझे सताते प्रतीत होते हैं, तब-तब ही मैं ध्यान या सामायिक द्वारा उन पर काबू पाने के प्रयत्न में जुट जाता हूँ । एक क्षण के लिये भी उनसे गाफिल नहीं हूँ, बराबर आहट लेता रहता हूँ, सचेत गृह-स्वामी की भाँति, जिसके घर में चोर भले प्रवेश कर जाय परन्तु बिना हानि पहुँचाए निकल जायेगा स्वयं । फलस्वरूप पुन: स्थापन कर देता हूँ मन को उसी शान्ति में और सामायिकरूप अर्थात समतारूप होकर फिर विचरण करने लगता हँ शान्ति में। कभी सामायिक और कभी छेद, पुन: सामायिक में स्थापना और फिर छेद, पुन: स्थापना और फिर छेद । इसी प्रकार सामायिक, छेद व स्थापना के झूले में झूलता हुआ आज भी बराबर आगे बढ़ा चला जा रहा हूँ, लक्ष्य पूर्ण किये बिना संतोष करने वाला नहीं। घबराना मेरा काम नहीं, मेरे हाथ में है वह ध्वजा जिस पर लिखा है 'आगे बढ़ो' । अजीब है इस समय मेरे जीवन की दशा; चलते, फिरते, आहार लेते, शास्त्र लिखते, उपदेश देते, साथियों से धर्म-चर्चा करते, यहाँ तक कि सोते समय भी बराबर सामायिक, छेद व स्थापना इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। कोई निश्चित समय ही सामायिक का हो, अब ऐसी बात नहीं रही। आध या पौन घण्टे से अधिक मेरी समता का छेद कभी भी होने नहीं पाता । आहार-विहार करते समय भी यदि कदाचित् विकल्प आया तो मैंने इसे पकड़ा, सचेत हुआ, और बस फिर क्या था, भाग खड़ा हुआ वह । मैं पुन: करने लगा स्नान समता में, करने लगा पान चैतन्य रस का । शरीर चलने का काम कर रहा है बाहर में, और मैं समता में स्नान कर रहा हूँ अन्तरंग में; शरीर लिखने का काम कर रहा है बाहर में, और मैं समता में स्नान कर रहा हूँ अन्तरंग में; शरीर खाने का काम रहा है बाहर में, और मैं समता में स्नान कर रहा हूँ अन्तरंग में । यहाँ तक कि सोते-सोते भी बराबर आध-आध पौन-पौन घण्टे के पश्चात स्वत: आँख खल जाती है, मझे पन: शान्ति में स्थापित करने के लिये । और इसी प्रकार विकल्प व शान्ति के झूले में झूलते हुए बराबर आगे बढ़ा चला जा रहा हूँ। साधु-जीवन के इस अंग का नाम है 'छेदोपस्थापना चारित्र'। (३) इस पुरुषार्थ से परिणाम की विशुद्धि बराबर बढ़ती गई और अशुद्धि का परिहार होता गया, अत: इस सर्व अन्तरंग पुरुषार्थ का नाम है 'परिहार विशुद्धि चारित्र'। (४) अरे ! यह क्या ? झूले में झूलते-झूलते घुमेर चढ़ गई, और भूल गया सब कुछ, हो गया बेसुध ? चलना, फिरना, खाना, पीना, लिखना, बोलना सब कुछ छूट गया। बाह्य क्रिया की तो बात नहीं, 'मैं हूँ या नहीं यह भी भान नहीं रहा । मैं जानने वाला और विश्व जनाया जाने वाला यह भी भेद नहीं रहा । कौन जाने और किसे जाने, कौन ध्यावे और किसे ध्यावे, कौन विचारे और किसे विचारे, एक अद्वैत अवस्था है, शान्ति का रुद्ररूप है, जिसे देखकर संस्कारों के अर्धमृत कलेवर, अब देखो खिसकने लगे। वह देखो निद्रा भागी; हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि व मैथुन-भाव भी लगे भागने; जिस ओर जिसकी नाक उठी भाग निकले। कितने भयभीत हैं आज ये ? मैंने आज रौद्र रूप धारण किया है, मैं साक्षात् रुद्र हूँ, भगवान रुद्र । साधु-जीवन के इस अंग का नाम है 'शुक्लध्यान की प्रथम श्रेणी'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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