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४६. चारित्र
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३. समन्वय
क्रोध, मान, माया भी बेचारे क्या करें ? आपस में लगे सलाह मश्वरा करने, सब साथी छोड़कर चले गये, अकेले क्या करें ? कोई बात नहीं, अपनी बिखरी हुई सेना को एक मोरचे पर संगठित करो और अन्तिम बार आक्रमण करके देखो । अब भी कुछ दम है इनमें, यद्यपि मुझे बाधा पहुँचाने में बिल्कुल असमर्थ, परन्तु दूर खड़े-खड़े अब भी कुछ करने की ठान ही रहे हैं । देखें तो कि क्या करते हैं ये ? वह देखो क्रोध की टोली आ मिली मान में और ये दोनों आ मिले माया में । अभी भी पर्याप्त नहीं है. चलो लोभ को साथ लें। तीनों आ मिले लोभ के साथ । अब ठीक है कछ बल है, लगाओ जोर, देखो एक ही बार आक्रमण करना, और लोभ की अध्यक्षता में लगे सब ओर से बाण बरसाने । परन्तु इन बेचारों को क्या पता कि अद्वैतता के इस कवच पर अब इनके बाण असर नहीं करेंगे प्रत्युत उसके बढ़ते हुए तेज में वे स्वयं भस्म हो जायेंगे। वह देखो लगे जलने । सब जल गये, परन्तु अब भी खड़ा रह गया है एक लोभ, अत्यन्त क्षीण दशा में, अकेला।
असमंजस में पड़ा बेचारा विचार रहा है कि अब क्या करे, बन्दी हाथ से निकला जाता है। आश्चर्य है इसके साहस पर; सब साथी भाग गये, शेष मारे गये, पर अब भी पीठ दिखाने को तैयार नहीं । सच्चा क्षत्रिय है, मरना स्वीकार पर रण से भागना स्वीकार नहीं। इधर से मेरा अद्वैत तेज भी बढ़ा, चहुँ और ताप फैल गया, अग्नि बरसने लगी। ओह ! आज मैं साक्षात् अग्नि देव हूँ, इस लोभ के भग्नावशेष को दग्ध करने के लिए, अर्थात् उपरोक्त शुक्लध्यान में एकाग्रता अधिकाधिक बढ़ती गई और अवशेष रहे इस सूक्ष्म से लोभ का संस्कार भी भस्म हो गया । पुरुषार्थ के इस उत्कृष्ट भाग का नाम है, 'सूक्ष्म साम्पराय चारित्र'।
(५) संस्कारों की अन्तिम कणिका का निर्मूलन हो जाने के पश्चात् अब मैं अत्यन्त निर्मल हो चुका हूँ । अब कोई शक्ति नह जो मुझे प्रेरित करके किञ्चित् भी विकल्प उत्पन्न करा सके। शान्ति में स्थिरता दृढ़तम हो गई, पूर्णता के लक्ष्य की साक्षात प्राप्ति हो गई। आखिर जैसा बनने का संकल्प किया था वैसा बन ही गया। अब कभी भी इस अवस्था से छेद को प्राप्त नहीं हूँगा, सर्वदा के लिए शान्त हो गया हूँ मैं । जिसको लक्ष्य में रखकर चला था वह मिल गया, जो बनना चाहता था वह बन गया, यथाख्यात रूप को प्राप्त हो गया। जीवन के इस आत्यन्तिक शुद्ध भाग का नाम है 'यथाख्यात चारित्र'।
३. समन्वय साधना अधिकार में यह बात भली भाँति समझा दी गई है कि साधक की प्रत्येक क्रिया में दो अंश विद्यमान रहते हैं, एक अभ्यन्तर अंश और एक बाह्य अंश । इनमें से अभ्यन्तर अंश ही समता अथवा शान्ति रूप होने के कारण चारित्र है, और विकल्पात्मक होने के कारण बाह्य अंश अचारित्र है। स्वतन्त्र होने के कारण अभ्यन्तर अंश मुक्ति रूप है और परतन्त्र होने के कारण बाह्य अंश बन्ध रूप है। इसलिए अभ्यन्तर अंश अमृतकुम्भ है और बाह्य अंश है विषकुम्भ । ज्यों-ज्यों साधक आगे बढ़ता है त्यों-त्यों उसके चारित्र का बाह्य अंश कम होता जाता है और अभ्यन्तर अंश बढ़ता जाता है । एक दिन अन्तरंग अंश पूर्ण हो जाने पर बाह्य अंश बिल्कुल समाप्त हो जाता है।
अन्तरंग अंश की कुछ पूर्णता हो जाने पर या पूर्णता के निकट पहुँच जाने पर ही जीवन सामायिकरूप दिखाई देने लगता है, क्योंकि यहाँ अशुद्धता का अंश बहत हीन हो गया है, उसका स्वाद अब विशेष नहीं आता। सामायिक चारित्र वास्तव में बाह्य क्रियाओं में पड़े हुए अन्तरंग अंश का ही वृद्धिंगत रूप है, कोई नवीन वस्तु नहीं । यह अंश प्रथम पग अर्थात् देवदर्शन में ही प्रकट हो चुका था, और अब वही पुष्ट होता-होता इतना बड़ा हो गया है । इस प्रकार साधक उन क्रियाओं के केवल अन्तरंग अंश में अधिकाधिक स्थिरता धारने का अभ्यास करता हुआ, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म साम्पराय की श्रेणियों को पार करता हुए एक दिन यथाख्यात-चारित्र में प्रवेश करता है । यहाँ इसका चारित्र पूर्ण-शुद्ध हो जाता है ।
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