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२४. गुरु-उपासना
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३. आदर्श शिक्षा की बात को अन्तर्ध्वनि की । इन बाह्य गुरुओं के सामने उस संस्कार की तीन-पाञ्च चलती नहीं, क्योंकि अनुभवी हैं ये, अनेकों उतार चढ़ाव देखे हैं इन्होने, बाह्य जीवन के भी और अन्तरंग जीवन के भी, बाह्य जगत के भी और अन्तरंग जगत के भी। एक-एक चतुराई को जानते हैं ये इसकी । अत: वर्तमान की इस डांवाडोल दशा में अत्यन्त उपकारी हैं ये मेरे लिये। ___इस श्रेणी में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त है माता-पिता को । शिशु-काल की अबोध दशा से लेकर जब तक भली भांति प्रबद्ध न हो जाऊँ मैं और अपना हिताहित स्वयं समझने के योग्य न हो जाऊँ मैं, तब तक बराबर पथ प्रदर्शन करते हैं ये मेरा, जीवन के हर संकट तथा कण्टक से बचाते हैं ये मुझे । स्वयं कष्ट झेलते हैं अनेकों परन्तु मुझे कष्ट नहीं होने देते हैं तनिक भी। स्वयं रूखा खाकर माता घी पिलाती है मुझे, स्वयं भूखी रहकर दूध पिलाती है मुझे, स्वयं गीले में सोकर सूखे में सुलाती है मुझे । कौन चुका सकता है इनका ऋण? नत रहे मस्तक सदा इनके चरणों में।।
इससे कुछ आगे चलकर आते हैं मेरे शिक्षा-गुरु, स्कूल तथा कालेज के अध्यापकजन । कितने प्यार से पढ़ाते हैं वे मुझे, किस प्रकार क से कबूतर सिखाते हैं वे मुझे, किस प्रकार छोटी-छोटी कथायें सुनाकर जीवन रहस्य समझाते हैं वे मुझे और किस प्रकार बड़े-बड़े ग्रन्थों का अध्ययन करने योग्य बनाते हैं वे मुझे। असंस्कृत से सुसंस्कृत बनाते हैं वे मुझे, जीवन में रहने के विविध ढंग सिखाते हैं वे मुझे । कैसे चुका सकता हूं उनका ऋण ? नत रहे मस्तक सदा इनके चरणों में।
इनसे भी ऊपर चलकर आते हैं वे पारमार्थिक-गुरु, वीतराग-गुरु, जो उपदेश देते हैं मुझे अपने जीवन से। कितनी ममता है इनके होठों पर और कितना प्यार इनकी आंखों में? कितनी समता है इनके हृदय में और कितना दुलार इनकी बातों में ? कितना तेज है इनके मस्तक पर और कितना आलोक इनकी बुद्धि में? कितने वरद हैं इनके हाथ और कितनी रहस्यमयी इनकी चर्या ? कितना विशाल तथा उदार है उनका हृदय? सभी को समान देखने वाले, सभी से निज शिशुवत प्यार करने वाले, सभी को सन्मार्ग दर्शाने वाले, सभी को जीवन के अतिगुप्त रहस्य बताने वाले, वे रहस्य जिन्हें जानने के लिये स्वयं अनेकों कष्ट सहे हैं उन्होंने, दुर्धर तपश्चरण किये हैं उन्होंने । बाहर के सन्ताप से बचाकर अभ्यन्तर के प्रताप में ले जाते हैं ये मुझे, असत् लोक की भयावह शक्तियों से बचा कर सत्लोक की सैर कराते हैं ये मुझे, अशान्ति से शान्ति में पहुँचाते हैं ये मुझे, प्रायश्चित देकर मल-शोधन करते हैं ये मेरा (दे० ४०/३.१)
और शुद्ध हो जाने पर मुख चूमते हैं ये मेरा । कहाँ से लाऊँ शब्द इनका स्तवन करने के लिये? मेरे सर्वस्व हैं ये, मेरे भगवान हैं ये, मेरे जीवन हैं ये, मेरे प्राण हैं ये । अर्पण हो जाऊं मै सारा का सारा इनके चरणों में, तन से, मन से और वचन से । इनकी आज्ञा के बिना कुछ न करूँ मैं, इनकी आज्ञा के बिना कुछ न बोलूं मैं, इनकी आज्ञा के बिना कुछ न विचारूं मैं । और इसी में है मेरा हित, मेरा कल्याण, मेरा परमार्थ ।
३. आदर्श शिक्षा-देव-पूजावत् गुरु-उपासना का प्रयोजन भी गुरु को प्रसन्न करना या रिझाना नहीं है बल्कि उनके शान्त-स्वरूप पर से अपना शान्त-स्वरूप निहारना, उनके गुणों पर से अपने गुण स्मरण करना तथा उनके जीवन पर से अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करने की प्रेरणा लेना है। इस मार्ग में मेरी प्रगति बराबर बढ़ती चली जानी चाहिये। यद्यपि देव पूजा करते समय आध पौन घण्टे के लिये, अन्तर की प्रगति अवश्य कुछ शान्ति की ओर बढ़ी थी पर दैनिक-चर्या के अन्य समयों में लौकिक धन्धों में फंसकर वह पुन: मन्द पड़ जाती है, लुप्तवत् हो जाती है। गुरु का जीवन मुझे मन्दिर मात्र का सीमित कर्त्तव्य नहीं दर्शाता, बल्कि चौबीस घण्टों की मेरी जीवन-चर्या में कुछ योग्य अन्तर डालने की प्रेरणा देता है, तथा इस संशय को दूर करता है कि यह शान्ति पूर्ण हो सकनी शक्य भी है या नहीं। गुरु से प्रश्न करके नहीं बल्कि उनके जीवन पर से यह बात पढ़ी जा सकती है कि यह शान्ति अवश्य पूर्ण हो सकती है और मुझे अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करना चाहिये । जैसा कि देव पूजा के शीर्षक नं०६ के अन्तर्गत तृतीय प्रश्न का उत्तर देते हुये दिखाया गया है, जीवित आदर्श से कुछ शाब्दिक उपदेश न मिलने पर भी एक भारी उपदेश मिलता है । यह उपदेश कुछ ऐर होता है जो सीधा जाकर जीवन पर टकराता है और जीवन की दिशा को घुमा देता है । दो वर्ष की स्वाध्याय भी इतना नहीं सिखा सकती जितना कि एक मिनट की गुरु-उपासना सिखा देती है । गुरु जीवित आदर्श हैं इसलिये इनकी उपासना या दर्शन मेरे जीवन में एक फेर ला सकने को समर्थ है । यद्यपि गुरु मौखिक उपदेश भी देते हैं, जिससे बड़े-बड़े सैद्धान्तिक रहस्य
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