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________________ १९६ २८. भोजन-शुद्धि ९. मछली अण्डा निषेध को इन बच्चों के रक्त से रंगकर माताओं के हृदय में संताप उपजा रहा हैं; कोई तो अपने बच्चों के मस्तक पर काला तिलक लगा रहा है कि कहीं नजर न लग जाय और कोई इन बच्चों को तलवार के घाट उतार रहा है। यदि अन्य से नहीं तो प्रकृति से तो डर । प्रकृति ने तुझे शाकाहारी बनाकर भेजा है मांसाहारी नहीं। इसके नियम को भंग मत कर । देख प्रकृति की गोद में पलने वाले चित्र विचित्र प्राणियों की ओर । दो जाति के पशु दिखाई देते हैं यहाँ, मांसाहारी और शाकाहारी। सिंह, बिल्ली, कुत्ता आदि मांसाहारी पशु हैं और गाय, घोड़ा, बन्दर आदि शाकाहारी । तू कौन-सी जाति का बनना चाहता है ? क्या-कहा ? मांसाहारी जाति का ! अरे ! ऐसा कहने से पहले प्रकृति से तो पूछ लिया होता । देख स्वयं कह रही है कि भोले मानव ! तुझे मैंने शाकाहारी बनाकर भेजा है, मांसाहारी नहीं, मांसाहारी पशुओं के शरीर को अन्य ढंग का बनाया है और शाकाहारी के शरीर को अन्य ढंग का, माँसाहारी पशओं के नख तीखे बनाये हैं और शाकाहारी के चपटे. मांसाहारी के दाँत नकीले बनाये हैं और शाकाहारी के चपटे. मांसाहारी के पंजे गुदगुदे बनाए हैं और शाकाहारी के कठोर; क्योंकि उस ही प्रकार के पंजे से शिकार पर झपटना, उसी प्रकार के नख से इसे फाड़ना तथा उसी प्रकार के दाँतों से उसे खाना सम्भव है । शाकाहारी के कठोर व चपटे अवयव इस काम के लिए उपयुक्त नहीं हैं। यही कारण है कि शाकाहारी पशु कभी भूलकर भी माँस नहीं खाते। देख ले अब अपने शरीर के अवयवों को और निर्णय कर कि तू कौन-सी जाति का पशु है। सर्व ही वस्तुयें तेरी भोज्य नहीं हैं। प्रकृति ने तुझे अन्न, वनस्पति तथा दूध प्रदान किया है। उसके नियम का उल्लंघन मत कर । मछली व अण्डा भी मांस की जाति से पृथक् नहीं किये जा सकते, क्योंकि वे भी बेज़बान प्राणी हैं । वे बोल नहीं सकते, इसका यह अर्थ नहीं कि उनके हृदय में तेरी भाँति अरमान न हों, वे जीना और जीवन का आनन्द लेना न चाहते हों । तेरे पास बुद्धि-बल है, जिसका सार्थक्य तभी है जबकि तू अपने साथ इन बेज़बानों की भी रक्षा करे । क्या कहा, बीमारी में खा लेने में तो कोई हर्ज नहीं है ? सो भाई ! यदि शाकाहारी पशु ऐसा कर लेते हों तो तू भी ऐसा कर ले, अन्यथा ऐसा करना प्रकृति से विरोध करना होगा। माँस मछली व अण्डा आदि ही जीवन के रक्षक नहीं हैं, अपना पुण्य व आयु ही जीवन के रक्षक हैं। महात्मा गाँधी का पुत्र बीमार पड़ गया डाक्टर ने माँस खाने को बताया, पर गाँधी के दृढ़ संकल्प में से एक ही उत्तर निकला-“यद्यपि शरीर की रक्षा के लिए बहुत कुछ किया जाता है तथा करना चाहिए पर सब कछ नहीं। मानव-विवेक भी कछ महत्व रखता है। पत्र के प्राणों के लिए मैं विवेक बेचने को तैयार नहीं।" अत: भाई कुछ विवेक जागृत कर, मानवीय कर्त्तव्य को पहिचान, प्राकृतिक नियम को भंग न कर, दया धार, शरीर ही सर्वस्व नहीं है। दूसरों की आहों व चीत्कारों को अपनी हँसी का आधार मत बना, दूसरों की चिताओं पर अपने जीवन का प्रासाद मत खड़ाकर, अपने पेट को दूसरों के मृत शरीरों की कब्र मत बना । प्रेम कर सबसे, छोटे व बड़े से, मानव व पशु से, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि अपनी सन्तान से करता है तू। ९. मछली अण्डा निषेध-मछली और अण्डे को माँस से भिन्न जाति का बताने वाले मानव ! कुछ विवेक उत्पन्न कर, मछली माँस से पृथक् नहीं की जा सकती। पहले मेरी आँखों से देख उस ओर उस मछली को जो कि उस काण्टे में फँसी तड़प रही है। देख उसकी आँखों की ओर पढ़ने का प्रयत्न कर कि मूक भाषा में वह तुझसे दया की भीख माँग रही है। ओ मानव ! अपनी इस जिह्वा-पोषण के स्वार्थ में अन्धा हो जाने के कारण तुझे कैसे दिखाई दे उसके हृदय की तड़पन और कैसे सुनाई दे उसकी यह मूक भाषा ? अण्डे को मुर्गी के नीचे से हटाकर एक बार उसकी आँखों में झाँककर देख ले प्रभु ! कि वह क्या कह रही है तासे । “जगत का रक्षक बनकर आने वाले ओ निर्दयी मानव ! जिसे त सफेद-सफेद पत्थर का टकडा समझ कर उठाये लिए जा रहा है, वह मेरे जिगर का टुकड़ा है। प्रसति-गह में से ही तरन्त जन्मे बालक को उसकी माता से दर कर देने पर वह माता कितनी तड़फेगी, इस बात का अनुमान लगा ले। इस सफेद पत्थर में मेरी आशायें पड़ी हैं, इसमें वह छोटा सा कोमल हृदय पड़ा है जिसे १५ दिन तक मैंने गर्भ में रखकर पाला है । दया कर, दया कर ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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