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जन्मादिहेतुः जगत: परन्तु, संसारपाथोनिधिपारसेतुः । विमोक्षदेवालयतुङगकेतुः, सोऽहं परंब्रह्म निरंजनोऽस्मि ॥४॥ 'कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भू' - 'रणोरणीयान् महतो महीयान् ।' भान्तं यमेवानुविभाति सर्वं, स ज्योतिषां ज्योतिरहं विधूम: ॥५॥ यथा स्वपुत्रं परिचुम्ब्य माता, न वेत्ति किञ्चिद्धि सुखातिरिक्तम् । नान्तर्विपश्यन्त्र बहिर्न चोभौ, सोऽहं तथानन्दसमुद्रलीन: ॥६॥ आनन्द चैतन्यविलासरूपं, क्रियाकलापादिकसाक्षिणं यत् । जानामि नित्यं हृदये विभान्तं, सोऽहं स्वयं ज्ञानधनप्रकाश: ॥७॥ येन स्वयं सा निरमायि माया, तथा च लीलामनुसृत्य बद्धः । वेदोऽपि जानाति न यस्य भेदं, मायापति: सोऽहमचिन्त्यरूप: ।।८।।
(पञ्च चामर छन्द) अपापबिद्ध जो प्रसिद्ध, शुद्ध बुद्ध सिद्ध है, स्वयं स्वकीय-पाससे निबद्ध भी स्वतन्त्र है । प्रसिद्ध शास्त्र में सुखात्म-रूप ज्ञानकी प्रभा, विदेह-रूप कौन है ? अहो, यही स्वयम् 'अहम्' ।
अशेष-वेद-शास्त्र नित्य कीर्ति को बखानते, न इन्द्रियादि-गम्य जो समस्त-ज्ञान-मूल है । गिरा-शरीर-बुद्धि की मलीनता-विहीन है,
समस्त-शास्त्र-सार-भूत है यही स्वयम् 'अहम् ॥ प्रपञ्च-हेतु भी यही, प्रपञ्च-सेतु भी यही, विमोक्ष-देव-मन्दिरोच्य-भव्यकेतु भी यही । यही महान से महान, सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म है, कवीन्द्र, प्राज्ञ, सर्वभू, विधूम-ज्योति है यही ।
यथा स्वकीय-पुत्र का विशाल भाल चूमती, न जन्मदा स्व-देहको, न अन्य वस्तु जानती । तथा प्रमोद के पयोधिकी तरंग में रंगा
हआ 'अहं' न बाह्य को, न अन्त को विलोकता॥ निजात्म-जन्म-हेत, यह समस्त लोककी प्रभा, धन-प्रकाश-रूप, चित्स्वरूप, रूप के बिना। क्रिया-कलाप-साक्षिभूत, चिद्विलास-रूपिणी, प्रमोदकी परा स्थली, अहो यही स्वयम् 'अहम्' ।
न वेद भी अभेद्य भेद जानता परेशका, कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी कहीं कभी कहीं।
बना स्वयं विशाल एक जाल खेल खेलता, __परन्तु जो कि वस्तुत: विमुक्त है, स्वतन्त्र है ।। इति शम्
-डॉ० दयानन्द भार्गव, एम० ए०
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