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________________ (vii) है। इस दौड़ में ठोकर खानेपर या किसी अन्य दौड़ने वाले से टकरा जानेपर क्या झनझनाकर आपके मनने कभी यह भी कहा है कि इस दौड़ से दूर हट जायें तो अच्छा है। किन्तु इस दौड़ से दूर हटना क्या सरल है ? कुछ समय के लिए बाह्य दौड़-धूप से बलात् निग्रहकर भी लिया जाये तो भी आन्तरिक द्वन्द्व तो रुकता नहीं। यह भी स्पष्ट है कि वास्तविक समस्या तो यह आन्तरिक द्वन्द्व ही है, बाह्य दौड़-धूप तो उस आन्तरिक द्वन्द्व का प्रतीक मात्र है। इस आन्तरिक द्वन्द्व को नियन्त्रित करना संसार का कठिनतम तथा कठोरतम साधन-साध्यकार्य है। इन कठोर साधनों की सिद्धि के लिए ऐसा सुदृढ़ साधक अपेक्षित है, जो राग-द्वेष के ज्वार भाटों में शिला के समान अडिग रहे, तनिक भी विचलित न हो। और इस सबके विनिमय में उसे क्या प्राप्त होता है ? कुछ नहीं और सब कुछ । इस दौड़-धूप का अवसान हो जाता है, रज क्षीण हो जाता है, तथा उस एकात्मरस चिदानन्द आनन्दघनैकरस शुद्ध बुद्ध निजस्वरूप की उपलब्धि हो जाती है जिसे प्राप्त करके प्राणी कृतकृत्य हो जाती है । उस अवाङ्मनसगोचर प्रपंचोपशम अद्वैत दशा का, शेष भी अशेषत: वर्णन करने में अशक्त है, अस्मदादि अकिंचन प्राकृत जनों की तो कथा ही क्या है? ___कदाचित् यह दौड़ एकान्तत: समाप्त न भी हो, तो भी साधक की दौड़ में नियमितता तो आ ही जाती है। वह दौड़ते हुए भी विवेक नहीं खो बैठता । दौड़ते हुए भी वह यथासम्भव न किसी को ठोकर मारता है, एवं फलस्वरूप न किसी की ठोकर खाता है । वह दौड़ते हुए भी नहीं दौड़ता । उसकी दौड़ का भी अन्त निकटवती ही समझना चाहिए। __ वाष्कलि मुनि ने बाध्व से आत्मा का स्वरूप पूछा । बाध्वने कहा, “ब्रह्म स्वरूप सुनो"। यह कहकर बाध्व मौन हो गए। वाष्कलि ने कहा, “भगवन् ! आप मौन क्यों हैं? आत्मा का स्वरूप बताइये न?” बाध्व फिर भी मौन रहे । वाष्कलि ने कहा, “भगवन् ! आप ब्रह्म का स्वरूप क्यों नहीं बतलाते?" बाध्व बोले, “मैं तो ब्रह्म का स्वरूप बतला रहा हूँ, किन्तु तू नहीं समझता । यह आत्मा उपशान्त है।" । ऐसी शब्दातीत उपशान्त आत्मा का वर्णन इस शान्तिपथ-प्रदर्शन में है। पन्द्रह वर्ष पूर्व स्टेशनों पर पीने के पानी पर 'हिन्दु-पानी' और 'मुस्लिम-पानी' लिखा रहा करता था। अब केवल पीने का पानी' लिखा रहता है। सौभाग्य से अब हम यह समझने लगे हैं कि पानी हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता, वह 'पीने के लिए होता है। क्या सभी मानव जाति यह भी समझेगी कि धर्म हिन्दू या मुस्लिम, जैन या बौद्ध अथवा इसाई और यहूदी नहीं होता, वह तो वस्तु के स्वभाव का नाम है ? यदि कभी ऐसे सहज मानव धर्म की नींव पड़ेगी, तो प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न उस नींव में सुदृढ़ पाषाण का स्थान ग्रहण करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। मुझे पुस्तक के प्रणेता के मुखारविन्द से इन प्रवचनों के अमृतपान का सौभाग्य मिला है। लेखक के क्षल्लक दीक्षा ग्रहण करने के अवसर पर एक पत्र में, इन प्रवचनों की जो प्रतिक्रिया मुझपर हुई वह मैने श्लोकबद्ध करके लेखक की सेवा में प्रेषित की थी। उसी पत्र के अन्तिम अंश के कतिपय श्लोक उद्धृत करते हुए मैं अपनी लेखनी को विश्राम देता हूँ। पं० रूपचन्दजी गार्गीय के आग्रहपर मूल संस्कृत का पञ्च चामर छन्द में हिन्दी पद्यानुवाद भी दे रहा हूँ। श्लोक संख्या में तथा प्रत्येक श्लोक के अन्तिम चरण में सोऽहम् महावाक्य आता है, अत: चाहें तो इसे सोऽहमष्टक भी कह सकते हैं : (सोऽहम्-अष्टक) अपापविद्धो य इति प्रसिद्धः, स्वयं स्वकीयैर्नियमैर्निबद्धः ।। सिद्धः प्रबुद्धः सततं विशुद्धः सोऽहं न पापे करवाणि बुद्धिम् ॥१॥ ज्ञानानि सर्वानि यदाश्रितानि, ज्ञाने च यस्या सफलानि खानि । सर्वाणि शास्त्राणि च यत्पराणि, सोऽहं न पापे करवाणि वाणीम् ॥२॥ अध्यात्मशास्त्राणि चिदात्मकं यं, सुखात्मरूपं परमात्मसंज्ञम् । देहादिभिन्नं शिवमाहुरेनं, सोऽहं न पापे करवाणि देहम् ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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