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________________ २९. तप 388 १. सामान्य परिचय; २. भय निवृत्ति; ३. शक्ति वर्द्धन; ४.शरीर का सार्थक्य; ५. मानस तप; ६.नव संस्कार। १. सामान्य परिचय-बात चलती थी यहाँ से कि मुझे शान्ति चाहिए और कुछ नहीं। उसे कैसे प्राप्त किया जाए यह प्रश्न था। उत्तर में पिछले कई दिनों से अनेकों प्रकरणों द्वारा यह बताया गया कि वास्तव में शान्ति मुझ से कोई भिन्न पदार्थ नहीं जो कि उसे बाहर कहीं से खोजकर लाना पड़े, प्रत्युत स्वयं मेरा स्वभाव है, मेरा धर्म है, जो यद्यपि मेरे ही किन्हीं अपराधों के कारण बाधित अवश्य हो रही है, परन्तु मुझसे विलग नहीं हुई है। यदि सत्य का लक्ष्य लेकर साधना करूँ तो अवश्य उसे हस्तगत करने में सफल हो जाऊँ। व्यक्ति की प्रकति. शक्ति व स्थिति के अनसार साधना तीन भागों में विभाजित की गई है-गृहस्थ-धर्म, श्रावक-धर्म और साधु-धर्म । गृहस्थ-धर्म के अन्तर्गत देव पूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय तथा संयम इन चार अंगों का कथन हो चुका । अब चलना है उसके पाँचवें अंग 'तप' का कथन । देव पूजा आदि के द्वारा यद्यपि नित्य-नूतन अपराधों का आंशिक संवरण कर लिया गया अर्थात् उनका आस्रवन या आगमन कुछ-कुछ रोक दिया गया, तदपि वे परिपुष्ट संस्कार जो पीछे बैठे अनेकविध विकल्पों द्वारा मेरी इन अपराधी प्रवृत्तियों को प्रेरणा देते रहते हैं, अभी पूरी शक्ति के साथ गरज रहे हैं। जब तक इनकी शक्ति कुछ क्षीण नहीं हो जायेगी तब तक शान्ति-पथ पर मेरी निर्बाध गति सम्भव नहीं है। संस्कारों की क्षति ही निर्जरा तत्त्व है और तप उसका साधन है। यहाँ गृहस्थोचित धर्म के अन्तर्गत इस तप का सामान्य परिचय देना इष्ट है, क्योंकि इसका विशेष विस्तार आगे 'उत्तम-तप' नामक ४० वें अधिकार में किया जाने वाला है, जोकि प्राय: साधुओं तथा सन्यासियों के द्वारा सिद्ध किया जाने योग्य है। तप का अर्थ है आत्म-प्रतपन अर्थात् आत्मतेज या आत्म-शक्ति की जागृति, जिसके जागृत हो जाने पर साधक इन संस्कारों को ललकारने का तथा उनके साथ युद्ध ठानकर उनकी शक्ति को किञ्चित क्षति पहुँचाने का साहस कर सके। संस्कारों को ललकारने का तात्पर्य है प्रतिकूल वातावरण में जाकर साधना करना, अब तक की गई साधना की परीक्षा करना. और यदि कहीं कमी प्रतीत होती है तो उसे दूर करना । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, (देखो २३ । ६.१०) हीन शक्ति वाले प्राथमिक साधक को मार्ग का प्रारम्भ अर्थात् अपनी साधना अनुकूल वातावरण में रहकर करनी चाहिये । परन्तु उस वातावरण में रहते हुए विकल्पों का या तीव्र कषायों का किंचित् दमन हो जाने पर सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि इनका वास्तविक दमन तभी माना जा सकता है जबकि प्रतिकूल वातावरण में भी ये उभरने न पावें । यद्यपि साधना का प्रारम्भ प्रतिकूल वातावरण में नहीं किया जा सकता, तदपि अनुकूल वातावरण में साधना का कुछ फल प्राप्त कर लेने पर शक्ति में कुछ वृद्धि अवश्य हो जाती है । बस इस शक्ति के आधार पर अब प्रतिकूल वातावरण में जाकर उस साधना की परीक्षा करना ही गृहस्थोचित् 'तप' है। किसी व्यक्ति को क्रोध उसी समय आता है, जबकि सामने कोई दूसरा व्यक्ति उपस्थित हो । यदि विरोधी की अनुपस्थिति में क्रोध न आने का नाम ही शान्त रहना है, तब तो लोक में सभी शान्तचित्त कहलायेंगे, क्योंकि कौन ऐसा है जो घर में बैठा दीवारों से लड़ता हो या निष्कारण किसी राहगीर से छेड़-छाड़ करता हो ? एक बार वर्णी जी ने अपनी माता से कहा कि अब मैं बहुत शान्त हो गया हूँ । माता ने परीक्षा के लिये एक दिन खीर के स्थान पर मलहड़ी (छाछ की नमकीन खीर) परोस दी । खाते ही वर्णी जी का पारा चढ़ गया और थाली फैंक कर मारी। पता चल गया वर्णी जी को कि वे अभी शान्ति से कितनी दूर हैं। बस इसी प्रकार अपनी साधना की सफलता तब समझो जबकि प्रतिकूल साधनों के उपस्थित हो जाने पर भी शान्ति में भंग न पडे । इस प्रयोजन के लिए किया जाता है तप, जिसमें जान बूझकर प्रतिकूल परिस्थितियों का आवाहन किया जाता है, प्रतिकूल वातावरण में प्रवेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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