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२८. भोजन-शुद्धि
१२. समन्वय निर्भर है। यह ध्यान रहे कि यहाँ एक मध्यम मार्ग का विचार हो रहा है जिससे कि जीवन भी बना रहे, साधना में विघ्न भी न हो और जीव-हिंसा भी कम से कम हो।
यदि कोई व्यक्ति केवल सूखे अन्न पर निर्वाह कर सके और उसकी साधना बाधित न हो तो अत्यन्त उत्तम है, उसको हरित व दुग्ध का त्याग कर देना चाहिए। यदि अन्न व वनस्पति से काम चला सके तो कभी भी दध पीना नहीं चाहिए। परन्तु अनुभव करने पर यह प्रतीति में आता है कि इन दो पदार्थों के अतिरिक्त शरीर को कुछ चिकनाई की तथा कुछ विटामिनों की भी आवश्यकता है जो दूध में ही मिलते हैं, वनस्पति में नहीं । इसलिए यदि अधिक काल तक दूध का प्रयोग न किया जावे तो शरीर शिथिल हो जाता है, विचारणायें बाधित हो जाती हैं, बुद्धि सोने लगती है, साधना भंग हो जाती है। यद्यपि अपनी ही कमजोरी है पर इसी कमजोर हालत में साधना करना इष्ट है। इसलिए तीनों में सबसे निकृष्ट होते हुए भी दूध-दही आदि के ग्रहण की आज्ञा गुरुओं ने दी है। यहाँ इतना विवेक अवश्य रखना चाहिए कि यह प्रयोजनवश रिश्वत देकर काम निकालने के समान है, वास्तव में दूध अग्राह्य ही है। यदि किसी की शक्ति बढ़ जाय तो सबसे पहले उसे दूध का ही त्याग करना चाहिए, वनस्पति के त्याग का नम्बर उसके पीछे आता है। समाधिमरण के प्रकरण में जो अन्न का त्याग पहले और दूध का पीछे बताया है वह दूसरी अपेक्षा से है । शारीरिक शक्ति बढ़ने की वहाँ अपेक्षा नहीं है, बल्कि आहार घटाने की अपेक्षा है । अन्न की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होने के कारण दूध का त्याग वहाँ पीछे होता है।
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ये हैं दयालुता के आदर्श भगवान् महावीर । अहिंसक का प्यार ही वाण
से हत हंस की औषधि बन गया।
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