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२. धर्म का प्रयोजन
५. संसार-वृक्ष
जीवनलीला समाप्त कर दी उसने । कथा कुछ रोचक लगी है आपको, पर जानते हो किसकी कहानी है? आपकी और मेरी सबकी आत्मकथा है यह । आप हँसते हैं उस पथिक की मूर्खता पर, काश एक बार हँस लेते अपनी मूर्खता पर भी।
इस अपार व गहन संसार-सागर में जीवन के जर्जरित पोत को खेता हुआ मैं चला आ रहा हूँ । नित्य ही अनुभव में आनेवाले जीवन के थपेड़ों के कड़े अधातों को सहन करता हुआ, यह मेरा पोत कितनी बार टूटा और कितनी बार मिला, यह कौन जाने ? जीवन के उतार चढ़ाव के भयंकर तूफान में चेतना को खोकर मैं बहता चला आ रहा हूँ, अनादि काल से।
माता के गर्भ से बाहर निकलकर आश्चर्य भरी दृष्टि से इस सम्पूर्ण वातावरण को देखकर खोया-खोया सा मैं रोने लगा क्योंकि मैं यह न जान सका कि मैं कौन हूँ, मैं कहां हूँ, कौन मुझे यहां लाया है, मैं कहां से आया हूँ, क्या करने के लिए आया हूँ, और मेरे पास क्या है जीवन निर्वाह के लिये । सम्भवत: माता के गर्भ से निकलकर बालक इसीलिए रोता है। 'मानो मैं कोई अपूर्व व्यक्ति हूँ', ऐसा सोचकर मैं इस वातावरण में कोई सार देखने लगा। दिखाई दिया मृत्युरूपी विकराल हाथी का भय । डरकर भागने लगा कि कहीं शरण मिले।
बचपन बीता, जवानी आई और भूल गया मैं सब कुछ। विवाह हो गया, सुन्दर स्त्री घर में आ गई, धन कमाने और भोगने में जीवन घुलमिल गया, मानो यही है मेरी शरण, अर्थात् गृहस्थ-जीवन जिसमें हैं अनेक प्रकार के संकल्प विकल्प, आशायें व निराशायें। यही हैं वे शाखायें व उपशाखायें जिनसे समवेत यह गृहस्थ जीवन है वह शरणभूत वृक्ष । आयुरूपी शाखा से संलग्न आशा की दो उपशाखाओं पर लटका हुआ मैं मधुबिन्दु की भान्ति इन भोगों में से आनेवाले क्षणिक स्वाद में खोकर भूल बैठा हूँ सब कुछ।
कालरूप विकराल हाथी अब भी जीवन तरु को समूल उखाड़ने में तत्पर बराबर इसे हिला रहा है । अत्यन्त वेग से बीतते हुए दिन रात ठहरे सफेद और काले दो चूहे, जो बराबर आयु की इस शाखा को काट रहे हैं। नीचे मुँह बाये हुए चार अजगर हैं चार गतिये-नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव, जिनका ग्रास बनता, जिनमें परिभ्रमण करता मैं सदा से चला आ रहा हूँ और अब भी निश्चित रूप से ग्रास बन जाने वाला हूँ, यदि गुरूदेव का उपदेश प्राप्त करके इस विलासिता का आश्रय न छोड़ा तो। मधमक्षिकायें हैं स्त्री, पत्र व कुटुम्ब जो नित्य चंट-चंटकर मझे खाये जा रहे हैं, तथा जिनके संताप से व्याकुल हो मैं कभी-कभी पुकार उठता हूँ 'प्रभु ! मेरी रक्षा करें' । मधुबिन्दु है वह क्षणिक इन्द्रिय सुख, जिसमें मग्न हुआ मैं न बीतती हुई आयु को देखता हूँ, न मृत्यु से भय खाता हूँ, न कौटुम्बिक चिन्ताओं की परवाह करता हूँ और न चारों गतियों के परिभ्रमण को गिनता हूँ। कभी कभी लिया हुआ प्रभु का नाम है वह पुण्य, जिसके कारण कि यह तुच्छ इन्द्रियसुख कदाचित् प्राप्त हो जाता है।
यह मधुबिन्दु रूपी इन्द्रिय सुख भी वास्तव में सुख नहीं, सुखाभास है। जिस प्रकार कि बालक के मुख में दिया जानेवाला वह निपल, जिसमें से कुछ भी स्वाद बालक को वास्तव में नहीं आता, क्योंकि रबर के बन्द उस निपल में से किञ्चित् मात्र भी मधु बाहर निकलकर उसके मुँह में नहीं आता । जिस प्रकार वह केवल मिठास की कल्पना मात्र करके सो जाता है उसी प्रकार इन इन्द्रिय-सुखों में मिठास की कल्पना करके मेरा विवेक सो गया है, जिसके कारण गुरुदेव की करुणाभरी पुकार मुझे स्पर्श नहीं करती तथा जिसके कारण उनके करुणा भरे हाथ की अवहेलना करते हुए भी मुझे लाज नहीं आती। गुरुदेव के स्थान पर है यह गुरुवाणी, जो नित्य ही पुकार-पुकारकर मुझे सावधान करने का निष्फल प्रयास कर रही है।
यह है संसार-वृक्ष का मँह बोलता चित्रण व मेरी आत्मगाथा। भो चेतन ! कबतक इस सागर के थपेड़े सहता रहेगा? कब तक गतियों का ग्रास बनता रहेगा? कब तक कालद्वारा भग्न होता रहेगा? प्रभो ! ये इन्द्रियसुख मधुबिन्दु की भाँति नि:सार हैं, सुख नहीं सुखाभास हैं, 'एक बिन्दुसम'। ये तृष्णा को भड़काने वाले हैं, तेरे विवेक को नष्ट करनेवाले हैं। इनके कारण ही तुझे हितकारी गुरुवाणी सुहाती नहीं । आ ! बहुत हो चुका, अनादिकाल से इसी सुख के झूठे आभास में तूने आज तक अपना हित न किया। अब अवसर है, बहती गंगा में मुँह धोले । बिना प्रयास के ही गुरुदेव का यह पवित्र संसर्ग प्राप्त हो गया है। छोड़ दे अब इस शाखा को, शरण ले इन गुरुओं की और देख अदृष्ट में तेरे लिये वह परम आनन्द पड़ा है, जिसे पाकर तृप्त हो जायेगा तू, सदा के लिये प्रभु बन जायेगा तू। ।
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