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________________ ३. शान्ति १. भोग महारोग, २. चतुर्विध शान्ति, ३. सच्ची शान्ति १. भोग महारोग-शान्ति की पहिचान की बात चलती है। धनोपार्जन या विषय-भोगों में शान्ति नहीं है, यह बात कल बताई गई । परन्तु सन्तोष न हुआ उसे सुनकर। अभी भी अंतरंग में बैठा कोई अभिप्राय यह कह रहा है कि भले इच्छाका अन्त न आये, पर भोग आदि के क्षणों में तो उस मधु-बिन्दुवत् कुछ सुख प्रतीत होता ही है । फिर सर्वथा उसे दुःख किस प्रकार कह सकते हैं ? ठीक है भाई ! प्रश्न सुन्दर है। यह बात ही आज बताई जायेगी कि वह क्षणिक सुख जो भोग भोगते समय प्रतीत होता है, झूठा है। मेरे कहने मात्र पर विश्वास न कर लेना, और किसी के कहने से विश्वास आता भी तो नहीं। हृदय कब मानता है ? ले तो इस बात की प्रमाणिकता स्वयं तेरी अंतर्ध्वनि से ही सिद्ध करता हूं । एक बात तो आ चुकी कि ज्यों-ज्यों भोगों की प्राप्ति होती है त्यों-त्यों इच्छा बढ़ती है, हितकारी बात भी नहीं सुहाती । इसलिये भोगों की प्राप्ति में शान्ति नहीं। दूसरी बात यह है कि भोग भोगते समय भी तो उसे शान्ति नहीं कह सकते । जरा यह तो विचार कि वह क्षणिक सुखाभास सुख है या क्षणिक तीव्र वेदना का प्रतिकार ? देख भोग भोगने से पहले उस भोग के प्रति अकस्मात् ही कोई तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है । यह इच्छा तेरी पूर्ववाली इच्छाओं के अतिरिक्त कोई नवीन ही होती है, किसी तीव्र- रोगवत् । भोगद्वारा इस नवीन इच्छा का प्रतिकार मात्र किया गया, जिसके कारण कुछ क्षणों के लिए वह इच्छा दबसी गई । पर यह न विचारा तूने कि इसके इस प्रकार दबाने का (आफ्टर इफैक्ट) उत्तर फल क्या हुआ ? पूर्व की इच्छा में और वृद्धि । भोग पूर्व नवीन तीव्र इच्छा और भोग के पश्चात पूर्व-इच्छा में वृद्धि होते हुए भी, क्या इस भोग को सुख कहा जा सकता है ? किसी प्रकार भी इसे सुख कह लिया जा सकता यदि भोगते समय भी पुरानी इच्छा में कोई क्षणिक कमी आ जाती । उसमें तो उस समय भी कुछ न कुछ वृद्धि हुई प्रतीत होती है । भोग भोगते समय जो वह इच्छा प्रतीति में नहीं आती, वह भ्रम है। देख, कल्पना कर कि तेरे दांतो में दर्द है, बड़ा तीव्र । तड़फ रहा है तू उसकी पीड़ा से । इसी हालत में बैठा दिया तुझे कुछ खड़ी सुइयोंपर । तो बता दांत की पीड़ा भासेगी या सुइयों के चुभने की ? स्पष्ट है कि उस समय दांत की पीड़ा तेरे उपयोग में ही न आ सकेगी। क्या पीड़ा चली गई ? नहीं, ज्यों की त्यों है। अब उठा लिया गया उन सुइयों पर से। तब कुछ सुखसा लगा, या दुःख ? स्पष्ट है कि कुछ सुख सा महसूस होगा। क्योंकि सुइयों की तीव्र पीड़ा जिसने दांत की पीड़ा को ढक दिया था, अब दूर हो गई है। बता तो सही कि क्या दांत की पीड़ा में कुछ कमी पड़ी? नहीं ज्यों की त्यों है। बल्कि सुइयों पर से उठने के पश्चात् अवशेष रही सुइयां चुभने की कुछ पीड़ा बढ़ गई है। इसमें । और कुछ देर पश्चात् वही दांत की पीड़ा, वही तड़पन, साथ साथ सुइयों की थोड़ी सी पीड़ा भी । बस इसी प्रकार भोग भोगते हुए समझना। भोग की तीव्र अभिलाषा कुछ देर के लिये, पहले की इच्छा पर हावी होकर उसे उपयोग में आने से अवश्य रोक लेती है, पर उसका अभाव नहीं कर देती । भोग भोगते समय इस नवीन तीव्र इच्छा का कुछ प्रतिकार हो जाने के कारण, उपयोग में आई वह इच्छा दबी सी अवश्य प्रतीत होती है, पर पूर्व इच्छा अब भी कोई कमी नहीं आती बल्कि इस नवीन इच्छा के प्रतिकार के उत्तरफलरूप में उसमें वृद्धि अवश्य हो जाती है, जैसे कि मियादी बुखार को औषधि के द्वारा दबा देने पर दिल की कमजोरी आदि कई नवीन रोग उत्पन्न हो जाने पर भी रोगी अपने को अच्छा हुआ मान लेता है । यह उसका भ्रम नहीं तो और क्या है ? T 2. चतुर्विध शान्ति - लोक में अनुभव की जाने वाली शान्ति कई प्रकार की होती हैं। उसके कुछ भेदों को दर्शा देना यहाँ आवश्यक है । क्योंकि उनको जाने बिना सच्ची व झूठी शान्ति में विवेक नहीं किया जा सकेगा और उसके अभाव में अपने पुरुषार्थ की दिशा की भी ठीक प्रकार से परीक्षा नहीं की जा सकेगी। क्योंकि वास्तव में मार्ग की परीक्षा का आधार आगम नहीं बल्कि शान्ति का अनुभव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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